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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

मृत्यु-शय्या पर


रंगरूटो की भरती के काम में मेरा शरीर काफी क्षीण हो गया। उन दिनो मेरे आहार में मुख्यतः सिकी हुई और कुटी मूंगफली, उसके साथ थोड़ा गुड़, केले वगैरा फल और दो-तीन नीबू का पानी, इतनी चीजे रहा करती थी। मैं जानता था कि अधिक मात्रा में खाने से मूंगफली नुकसान करती है। फिर भी वह अधिक खा ली गयी। उसके कारण पेट में कुछ पेचिश रहने लगी। मैं समय-समय पर आश्रम तो आता ही था। मुझे यह पेचिश बहुत ध्यान देने योग्य प्रतीत न हुई। रात-आश्रम पहुँचा। उन दिनो मैं दवा क्वचित ही लेता था। विश्वास यह था कि एक बार खाना छोड देने से दर्द मिट जायेगा। दूसरे दिन सवेरे कुछ भी न खाया था। इससे दर्द लगभग बन्द हो चुका था। पर मैं जानता था कि मुझे उपवास चालू ही रखना चाहिये अथवा खाना ही हो तो फल के रस जैसी कोई चीज लेनी चाहिये।

उस दिन कोई त्यौहार था। मुझे याद पड़ता है कि मैंने कस्तूरबाई से कह दिया था कि मैं दोपहर को भी नहीं खाऊँगा। लेकिन उसने मुझे ललचाया और मैं लालच में फँस गया। उन दिनो मैं किसी पशु का दूध नहीं लेता था। इससे धी-छाछ का भी मैंने त्याग कर दिया था। इसलिए उसने मुझ से कहा कि आपके लिए दले हुए गेहूँ को तेल में भूनकर लपसी बनायी गयी है और खास तौर पर आपके लिए ही पूरे मूंग भी बनाये गये है। मैं स्वाद के वश होकर पिघला। पिघलते हुए भी इच्छा तो यह रखी थी कि कस्तूरबाई को खुश रखने के लिए थोड़ा खा लूँगा, स्वाद भी ले लूँगा और शरीर की रक्षा भी कर लूँगा। पर शैतान अपना निशाना ताक कर ही बैठा था। खाने बैठा तो थोड़ा खाने के बदले पेट भर कर खा गया। इस प्रकार स्वाद तो मैंने पूरा लिया, पर साथ ही यमराज को न्योता भी भेज दिया। खाने के बाद एक घंटा भी न बीता था कि जोर की पेचिश शुरू हो गयी।

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