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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

कुंभ मेला


मुझे डॉ. प्राणजीवनदास मेंहता से मिलने रंगून जाना था। वहाँ जाते हुए श्री भूपेन्द्रनाथ बसु का निमंत्रण पाकर मैं कलकत्ते में उनके घर ठहरा था। यहाँ बंगाली शिष्टाचार की पारकाष्ठा हो गयी थी। उन दिनो मैं फलाहार ही करता था। मेरे साथ मेरा लड़का रामदास था। कलकत्ते में जितने प्रकार का सूखा और हरा मेंवा मिला, उतना सब इकट्ठा किया गया था। स्त्रियों में रात भर जागकर पिस्तो बगैरा को भिगोकर उनके छिलके उतारे थे। ताजे फल भी जितनी सुधड़ता से सजाये जा सकते थे, सजाये गये थे। मेरे साथियों के लिए अनेक प्रकार के पकवान तैयार किये गये थे। मैं इस प्रेम और शिष्टाचार को तो समझा, लेकिन एक दो मेंहमानो के लिए समूचे परिवार का सारे दिन व्यस्त रहना मुझे असह्य प्रतीत हुआ। परन्तु इस मुसीबत से बचने का मेरे पास कोई इलाज न था .

रंगून जाते समय स्टीमर में मैं डेक का यात्री था। यदि श्री बसु के यहाँ प्रेम की मुशीबत थी, तो स्टीमर में अप्रेम की मुशीबत थी। डेक के यात्री के कष्टो का मैंने बुरी तरह अनुभव किया। नहाने की जगह तो इतनी गंदी थी कि वहाँ खड़ा रहना भी कठिन था। पाखाने नरक के कुंड बने हुए थे। मल-मूत्रादि से चलकर या उन्हें लाँधकर पाखाने में जाना होता था ! मेरे लिए ये असुविधायें भयंकर थी। मैं जहाज के अधिकारियों के पास पहुँचा, पर सुनता कौन है? यात्रियो ने अपनी गंदगी से डेक को गंदा कर डाला था। वे जहाँ बैठे होते वहीं थूक देते, वहीं सुरती के पीक की पिचकारियाँ चलाते और वहीं खाने पीने के बाद बचा हुआ कचरा ड़ालते थे। बातचीत से होने वाले कोलाहल की कोई सीमा न थी। सब कोई अपने लिए अधिक से अधिक जगह घेरने की कोशिश करते थे। कोई किसी की सुविधा का विचार न करता था, सामान उससे अधिक जगह घेर लेता था। ये दो दिन बड़ी घबराहट में बीते।

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