जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू अरस्तूसुधीर निगम
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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…
सिकंदर ने एक सीधा प्रश्न किया, ‘‘क्या मैं जेउस बन सकता हूं?’’ इस प्रश्न में सिकंदर की भविष्य की अभिलाषाएं, आकांक्षाएं, महत्वाकांक्षाएं झांक रही थीं।
यह प्रश्न सुनकर अरस्तू थोड़ा हंसे, फिर बोले, ‘‘पूर्वकाल में यूनानियों की धारणा थी कि मनुष्य की नियति का नियमन जेउस करता है। पर ध्यान रहे नियति जेउस से भी बड़ी है। उसके आगे सभी पस्त हैं, सभी नतमस्तक हैं।’’
इलियड की पोथी हाथ में पकड़कर सिकंदर राजमहल की ओर अकेले पैदल ही चल दिया। एक स्थान पर वह रुका और उसने तीन बार कहा, ‘नियति! नियति!! नियति!!!’ फिर हाथ की मुट्ठी बांधकर हवा में घुमाई जैसे ‘नियति’ पर प्रहार कर रहा हो।
सिकंदर को गुरु आश्रम से प्रसन्न आया देखकर फिलिप ने अरस्तू का मन ही मन आभार माना। अरस्तू के सम्मान में फिलिप कुछ न कुछ करता ही रहता था। कुछ समय पूर्व उसके स्वयं के द्वारा अरस्तू के गृहनगर स्तैगिरा को ध्वस्त कर दिया गया था। राजा ने नगर का पुनर्निर्माण कराया, पलायन कर गए पूर्व नागरिकों को वापस बुलाया। इनमें से कुछ दास बन गए थे उन्हें मुक्त कराया और जो भयंकर गरीबी से जूझ रहे थे उन्हें सहायता दी। स्मरणीय है कि उस समय के ग्रीस के नगर आधुनिक कस्बों के बराबर थे।
ईसा पूर्व 336 में जब पुत्री क्लेओपाट्रा के विवाह का भोजोत्सव चल रहा था, उसके ही सुरक्षाकर्मी द्वारा फिलिप की हत्या कर दी गई। सिकंदर को सेना और सामंतों के सहयोग से एक प्रभावशाली उत्तराधिकार प्राप्त हो गया। उसने राज्य-पद ग्रहण कर स्थिति को नियंत्रण में ले लिया। अरस्तू अपने गृह-नगर स्तैगिरा पहले ही जा चुका था, जब सिकंदर की शिक्षा उसके 16 वर्ष का होते ही समाप्त हो गई थी। नगर का पुनर्निर्माण तो हो ही चुका था। परंतु उसकी वहां की गतिविधियों के संबंध में कोई विवरण, कोई अभिलेख या कोई सूचना नहीं है कि इस अवधि में वह क्या करता रहा।
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