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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543
आईएसबीएन :9781610000000

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।

मैं बांस हूं

पहले मेरा संक्षिप्त प्रोफाइल- मैं तिनके की जाति का एक लंबा गिरहदार ऐसा पौधा हूं जो वन में स्वतः उगता व नष्ट होता है। केला और नरकुल की तरह मैं अपने ही विकास के लिए फूलता हूं। वन में उत्पन्न होने के कारण मेरा एक नाम ´कांतार´ भी है। तृण जाति के पौधों में श्रेष्ठ होने के कारण मुझे ´तृणकेतु´ और ´तृणध्वज´ भी कहा जाता है। मेरे अन्य गुणवाचक नाम हैं- वंश, बेनु, वेणु, रंभ, सुपर्व आदि।

मैं मानव से वरिष्ठ हूं, उसका आदि साथी हूं। मैंने उसे जन्म लेते और क्रमशः सभ्यता के विभिन्न सोपानों पर चढ़ते देखा है। बाइबिल की कथा के अनुसार जल प्रलय से बचने के लिए नूह ने संसार की पहली नाव बनाई थी। नाव यद्दपि गोपेर (सरू) नामक वृक्ष की लकड़ी से बनाई गई थी परंतु उसे चलाने के लिए डांडें बांस की बनाई गईं । आज भी नदी में चलने वाली नावों में ´लग्गी´ बांस की ही होती है। ´लग्गी´ से याद आया कि गांवों में लम्बे बांस में छोटा हंसिया बांधकर पेड़ों से बकरी आदि के चारे के लिए पत्तियां काटी जाती हैं और वैसे ही बांस में छोटा झाड़ बांधकर पतंग और डोर लूटी जाती है इन उपकरणों को भी ´लग्गी´ कहते हैं।

हां, तो मैं कह रहा था कि मैं मानव का आदि साथी हूं। प्रारंभ में आदि मानव मेरे पास आने से डरता था। वास्तव में वह अज्ञान के कारण मेरे ´कीचक´ से डरता था- वैसे ही जैसे अज्ञातवास में द्रोपदी राजा विराट के सेनापति कीचक से डरती थी। जैसे सेनापति कीचक द्रोपदी के प्रति कामाग्नि में झुलस कर नष्ट हो गया वैसे हम बांस भी प्यार से परस्पर आलिंगन करने पर उत्पन्न होने वाली अग्नि से स्वयं नष्ट हो जाते हैं। बात ´कीचक´ नामक शब्द की हो रही थी। वन में बहने वाली वायु जब हमारे भीतर भरता है तो उससे निस्सृत होने वाली ध्वनि कीचक कहलाती है। इसी आधार पर मेरा एक नाम ´कीचक´ भी पड़ गया।

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