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जीवनी/आत्मकथा >> कवि प्रदीप

कवि प्रदीप

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :52
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10543
आईएसबीएन :9781610000000

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राष्ट्रीय चेतना और देशभक्तिपरक गीतों के सर्वश्रेष्ठ रचयिता पं. प्रदीप की संक्षिप्त जीवनी- शब्द संख्या 12 हजार।


हमारे समाज में भी वर्ग संघर्ष है, समुदाय की कई कोटियां बनी हैं। उच्चकोटि में हमारे वे साथी आते हैं, जिनके स्वामी उच्च वर्ग के हों। इस कोटि के जीव या तो गोद में खिलाने और टहलाने वाली प्रदर्शन की वस्तु बन गये हैं या दूसरों को डराने वाली चीज बन गये हैं। मालिकों के बंगलों के बाहर लिखा रहता है- ´कुत्तों से सावधान।´ यह देखकर हमें कितनी तकलीफ होती है। बौद्ध ग्रंथों में तो हमें सीधे-सीधे ´बदमाश´ कहा गया है। साक्षी है ´अंगुत्तरनिकाय´ नामक ग्रंथ का पंचम निपात जिसमें कहा गया है- ´´पंचिमे भिक्खवे अदीनवा मधुरायं। कतमें पंच? विसमा, बहुरजा, चण्डसुनरवा, बालयक्खा, दुल्लभपिण्डा।...´´ अर्थात हे भिक्षुओं, मथुरा में पांच दोष हैं। (किसी ने पूछा) कौन से पांच? (उत्तर मिला) वहां के रास्ते उबड़खाबड़ हैं, वहां धूल बहुत है, कुत्ते बदमाश हैं, यक्ष क्रूर हैं, वहां भिक्षा मिलना कठिन है। संभव है कि भिक्षुओं का ´ड्रेस कोड´ उस समय कुत्तों का परिचित न रहा हो। यह कष्ट तब और बढ़ जाता है, जब भारतेंदु जी जैसे साहित्यकार यह कहकर हमें विद्रूप की वस्तु बना देते हैं- ´श्वानों को मिलता दूध भात।´ उनकी वाणी सुनकर भूखे बच्चे हमसे कितनी घृणा करने लगते होंगे। हमें भी यह बंद-बंद-सा जीवन पसंद नहीं है। हमें तो प्रेमचंदजी की ´पूस की रात´ के हल्कू का ´जबरा´ बनना भाता है, जो मालिक के साथ अलाव फलांगता है, जाडे़ में ठिठुरता है और गायों के खेत में घुस आने पर उस सर्द रात में भौंक-भौंककर आसमान सिर पर उठा लेता है। यही हमारा मध्यम वर्ग है। गली-कूंचों में भटकने वाले हमारे भाई-बंधु अधम वर्ग में आते हैं, क्योंकि किसी तरह पेट भर लेने वाले उस वर्ग का कोई स्वामी नहीं होता, जिसके प्रति वह अपनी स्वामिभक्ति दिखा सकें। उन्हें भी घर लाया जाये, खिलाया-पिलाया जाय, तो वे भी किसी को हरगिज नहीं काटेंगे।

हम आजकल के कान्वेंट स्कूल देख रहे हैं, हमने गुरुकुल भी देखे हैं। गुरुकुल में विद्यार्थियों को आचरण की सभ्यता के अंतर्गत ´श्वान निद्रा´ का अभ्यस्त बनाया गया। परिणामतः गुरुकुल से एक से एक धुरंधर विद्वान, लोकहित करने वाले पुरुष समाज को मिले। नये जमाने के लोगों ने ´श्वान-निद्रा´ का सूत्र यह कहते हुए अपनाने से इन्कार कर दिया कि श्वान को तो अनिद्रा रोग है। जब हमने यह तर्क सुना, तो बड़ी हंसी आई। सुप्तावस्था में भी अपने कर्तव्य के प्रति हम सचेत और सन्नद्ध रहते हैं, इसलिये हमारी नींद क्षणभंगुर होती है। जरा-सी आहट पर हम चौंक पड़ते हैं कि कहीं हमारे कर्तव्य ने हमें आवाज तो नहीं दी है, कहीं अनिष्ट की आशंका तो नहीं है। तथ्य यह है कि हम अपने कर्तव्य के प्रति और आसन्न संकट के प्रति मानसिक रूप से इतने सचेष्ट रहते हैं कि निद्रा के दौरान भी जाग्रत-से रहते हैं। वास्तव में हम ´सुसुप्ति´ के स्थान पर ´सुप्ति´ की अवस्था में रहते हैं। यही श्वान-निद्रा है।

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