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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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´´लेकिन क्यों? उन पर मैंने बड़ा परिश्रम किया है।´´ परेशान पति ने कहा।

´´भाड़ में जाए ऐसा परिश्रम! नर-नारी के शारीरिक संबंधों के उद्दीपक भावों को चित्रित करके जनमानस में कुत्सा जगाने को ही क्या श्रम कहा जाएगा! ईश्वर ने कलम में ताकत दी है तो सामाजिक समस्याओं पर क्यों नहीं लिखते! जनरुचि को परिमार्जित करके उसे आदर्षों की ओर उन्मुख करने के लिए क्यों नहीं कलम चलाते! अपनी कलम से मनुष्य में मुरझाई-कुम्हलाई पड़ी संवेदनाओं की लता को क्यों नहीं सींचते! यदि नहीं कर सकते तो घटिया साहित्य लिखने की जगह मजदूरी करिए। इससे मुझे संतोष मिलेगा और आप भी दुष्कर्म से बचेंगे।´´

पत्नी की फटकार से पति का सोया-विवेक जाग पड़ा। क्षमायाचना के स्वर में कहा, ´´तुम ठीक कहती हो देवी! तुमने मेरी आंखें खोल दीं।´´

जागृत विवेक ने साहित्यकार को दिशा दी। अपने दायित्व को पहचानकर वह लोक-मानस का परिष्कार करने में जुट गए। साहित्यकार के दायित्व व गरिमा को पहचानने वाली मनीषी थे पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी। अपने प्रयासों व निष्ठा से कितनो को गढ़ा और निखारा। अंततः वे युग निर्माता साहित्यकार के रूप में जाने गए।

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