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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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प्रत्येक परिवार में कम से कम एक समर्पित श्रोता होता है जिसे बच्चों की और उससे बढ़कर पत्नी की श्रोतीय बाउंडरी में रहना पड़ता है। उसके श्रोतीय कर्तव्य की इतिश्री जेब हल्की होने में होती है।

महिलाएं अक्सर, सच कहूँ तो कभी भी, अच्छी श्रोता नहीं होती। कहीं भी एकत्र होने पर वे सभी बोलती हैं, श्रोता कोई नहीं होता। महिलाओं की किटी पार्टी में, चाय-नाष्ता ´सर्व´ करने के बहाने, चले जाइए, पाएंगें कि सभी ´बकती´ (´वक्ता´ का स्त्रीलिंग) हैं, श्रोता कोई नहीं है।

श्रोता सबसे ज्यादा बेचारा अपने ´बाॅस´ के सामने होता है। ´बाॅस´ की हर बात पर सहमति में या प्रशंसा के रूप में उसे सिर हिलाना पड़ता है, उसके बासी, बोदे और पुराने लतीफों पर भी उसे हंसना पड़ता है। उसकी हर बकवास सुननी पड़ती है।

मंचीय कवियों के श्रोता बड़े विकट होते हैं। अच्छी रचनाओं पर, जिनका निर्णय वे तत्काल कर लेते हैं, ताली मार-मार कर कवि को मंच-स्थल से एक मीटर उपर उठ जाने का आभास करा देते हैं। पसंद न आने पर सड़े अंड़े, टमाटर या हूटिंग जैसे अस्त्र प्रयोग कर कवि को मंचलुंठित कर देने में उन्हें समय नहीं लगता। इस सबके देखते गद्य लेखकों को सुविधा रहती है क्योंकि उन्हें श्रोताओं की नहीं, पाठकों की दरकार रहती है।

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