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लेख-निबंध >> लेख-आलेख लेख-आलेखसुधीर निगम
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कल्पना कीजिए यदि आदि मानव को अग्नि न मिलती तो उसका क्या हाल होता! जानवरों का कच्चा मांस खा-खाकर वह भी जानवर बना रहता। सभ्यता की ओर कदम बढ़ाने के लिए उसे ´अग्नि´ की आवश्यकता थी। अग्नि का प्रादुर्भाव बांस-वन में लगी आग से हुआ और लगभग 5 लाख वर्ष पहले मानव ने इसे ग्रहण किया। मानव ने अग्नि का महत्व समझा और उसे देवता का रूप देकर उसकी पूजा की। आग को हर समय साथ रखने की समस्या से निपटने के लिए मानव ने कालांतर में दो पत्थरों या अरणि (लकड़ी) को रगड़कर आग पैदा की। यही आदिम माचिस और लाइटर थे। मेरी प्रशंसा में परवर्ती कवियों ने कहा कि बांसों के आलिंगन से लगी आग प्यार के दुर्लभ क्षणों की साक्षी होती है, बांस कभी मरते नहीं। ठीक कहा, हम बढ़ते ही चले जाते हैं इसी कारण हमें ´वंश´ भी कहा जाता है।
मनुष्य ने प्रारंभ में अपने और अपने पशुओं के रहने के लिए जो कच्चे मकान बनाए उनकी छतों को रोकने के लिए ´बल्ली´ का सहारा लिया गया। मोटा बांस बल्ली कहलाता है। बांसों के दो-दो टुकड़े करके उन्हें आड़ा-तिरछा बांधकर ´टट्टर´ बनाए गए जिनसे उसके मकान की रक्षा के लिए चहारदिवारी बनाई गई और पशुओं के रहने के लिए बाड़ा बनाया गया।
जब कृषि-युग आया तो मैं मानव के बहुत काम का सिद्ध हुआ। बांस की गांठों को छीलकर मनुष्य ने अपने से तनिक ऊंची लाठी बनाई गई, जो कालांतर में शक्ति का प्रतीक बनी। हल के साथ लगा हुआ बीज गिराने का उपकरण ´बांसा´, जैसा कि नाम से ही विदित है बांस से बना, तालाब आदि से पानी उलीचकर सिंचाई करने वाली छिछली टोकरी ´बेड़ी´ या ´ढेंकुली´ बांस से बनाई गई। बांस से बना ´बखार´ अनाज-संग्रह के लिए प्रयुक्त हुआ। तैयार फसल को पक्षियों द्वारा नष्ट किये जाने से बचाने के लिए खेत में खड़ा किया जाने वाला कृषि-रक्षक पुतला या बिजूका बांस से बनाए जाने के कारण ´बल्ली संत´ कहलाया। बीमार पशुओं को ओषधि पिलाने के लिए फिर बांस की शरण में जाना पड़ा। इसी प्रकार पोले बांस से ´नलवा´ बना।
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