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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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दूसरों की बहू-बेटियों को माता के समान समझने का संस्कार शिवाजी को लंगोट से मिला था। शिक्षा समाप्त कर चलते समय उनके गुरु समर्थ रामदास ने अपने प्रसाद के रूप में शिवाजी को एक लंगोट दिया था। वे गुरु का संकेत समझ गए थे और उन्होंने आजीवन चारित्रिक द्दढ़ता का पालन किया। एक पिटक में रखकर वह लंगोट शिवाजी सदा अपने साथ रखते थे।

अंत समय में शिवाजी ने वह पवित्र लंगोट सुपात्र समझकर पेशवों को दे दिया। पेशवा उसे चंदन की पेटी में रखते थे और पेटी महल के मंदिर में स्थापित रहती। पेशवा के उत्तराधिकारियों को वह पेटी पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपी जाती रही। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में पराजित नानाराव पेशवा ने जलमार्ग से पलायन करते समय अपने पूर्वजों के अमूल्य रत्नों के साथ पिटक से निकालकर उस लंगोट को भी एक कपड़े में बांध लिया और जल मार्ग से बिठूर से आगे पहुंचकर उसकी सुरक्षा दुष्कर समझकर रत्नों सहित उसे गंगा को समर्पित कर दिया।

विश्व-प्रसिद्ध गामा पहलवान जब तंगदस्त हो गए तो पहले रुस्तमे-हिन्द का प्रतीक चांदी की गदा बिकी, सोने-चांदी के तमगे बिके फिर घर का सामान बिका। जब खरीदारों ने खूंटी पर टंगे उनके लंगोट पर दृष्टि डाली तो वे दहाड़े, ´´अबे नासुकरो, वो बिकाऊ नहीं है।´´

सर्वोदयी नेता जय प्रकाश नारायन लंगोट पहनकर मालिश करवाते थे। उनकी पत्नी प्रभावती सूखे तौलिए से उनकी देह पोछती थीं। प्रभावती ने स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर लिया था। जय प्रकाश नारायण को दामाद की तरह मानने वाले महात्मा गांधी ने उन्हें सुझाव दिया था कि वे दूसरी शादी कर लें। जयप्रकाश ने इंकार कर दिया और जीवनभर ´लंगोट´ बांधकर पत्नी प्रभावती का और उनके व्रत का साथ निभाया।

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