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सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10544
आईएसबीएन :9781610000000

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तोता रटंत जगत प्रसिद्ध है। इसका अर्थ है बिना समझे किसी बात को कंठस्थ करना। आजकल ´रटने´ को बुरा माना जाता है, परंतु पूर्वकाल में तमाम विद्या रटने में ही निहित थी। कहा भी जाता था- ´रटंत विद्या, खुदंत पानी।´ मान्यता है कि तोते को जितना रटाया जाय सिर्फ उतना ही बोलता है, अन्यथा अपनी ´टैं-टैं´ करता रहता है। वैसे तो पक्षी से सोच विचार की आशा नहीं की जा सकती है परंतु इतिहास गवाह है कि तोता परिस्थिति के अनुसार बिना सिखाए भी बात करता है। पेश है एक प्रसंग:

´बाबरनामा´ में बाबर लिखता है कि हम समझे थे कि तोता या शारक (´सारिका´ का वंशनाम) सिखाए बोल ही बोलती है, अपने से कोई बात नहीं बोलती। पर मेरे साथी बेग अबुल कासिम जलायर ने एक अजीब बात बताई। कहने लगा, ´मेरी तूती (यानी तोता) एक बार बोली, ´दम घुट रहा है, पिंजड़े की बस्तनी उतार दो।´ एक बार पालकी वाले सुस्ता रहे थे तो शायद राहगीरों की आहट पाकर बोली ´लोग जाते हैं, आप नहीं चलेंगे।´

तोता प्राचीन काल से मानव संस्कृति और साहित्य का अंग रहा है। बाल्मीकि जी बताते हैं कि श्रीराम के प्रासाद में सदा शुकों का कलरव होता रहता था। वन में श्रीराम भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि माता कौसल्या से अधिक प्रेम तो उनकी पाली हुई सारिका करती है जो तोते से कहती है कि वह उन्हें पालने वाली कौसल्या के शत्रु के पैर को काट खाए। श्रीराम दुखी होकर कहते हैं कि वह पक्षी होकर माता का इतना ध्यान रखती है और मैं पुत्र होकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाता। श्रीराम के प्रासाद में रहने के कारण तोते का नाम ´गंगाराम´ पड़ गया और उनके जींसगत प्रभाव से आज भी भारतीय तोता ´राम-राम´ कहना शीघ्र ही सीख लेता है।

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