जीवनी/आत्मकथा >> शेरशाह सूरी शेरशाह सूरीसुधीर निगम
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अपनी वीरता, अदम्य साहस के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा जमाने वाले इस राष्ट्रीय चरित्र की कहानी, पढ़िए-शब्द संख्या 12 हजार...
जागीर की जिम्मेदारी
जमाल खान ने अपने जागीरदार हसन को साधिकार बुलवाया। उससे उसके बेटे के गुणों की चर्चा की और फरीद को सहसराम और खवासपुर परगनों का प्रबंध सौंपने को कहा। इसका क्षेत्र और विस्तार क्या था और आजकल यह कहां तक जाएगा, यह कहना कठिन है। शायद इसे वर्तमान बिहार राज्य के आरा, बक्सर और सासाराम जिले के अंदर माना जा सकता है। बिना चूं-चपड़ किए हसन ने सूबेदार की बात को मान लिया। इतना ही नहीं जमाल खान की मध्यस्तता से पिता-पुत्र के दिल का मैल भी धुल गया।
1437 में जागीर हाथ में लेते ही फरीद ने जागीर में फैली अव्यवस्था और अराजकता दूर कर सुव्यवस्था स्थापित की। इसके लिए उसे कठोर परिश्रम करना पड़ा। उस समय समस्त उत्तर भारत में अशांति और अव्यवस्था की स्थिति थी। जरा-जरा-सी बात पर विद्रोह करना प्रजा का काम था तो दूसरी और शासक साधारण कारणों से भी जनता पर निर्मम अत्याचार करते थे। विद्रोह करना साधारण घटना बन गया था। कृषकों को सैनिकों से अपनी रक्षा करना कठिन समस्या थी। सैनिकों के लिए उन्हें बेगारी करनी पड़ती थी। उन्हें अनाज मुफ्त में देना पड़ता था। परिवार का, कुटुंब की स्त्रियों की इज्जत लूटने वाले सैनिकों से बचने के लिए किसान को तरह-तरह के बहाने करने पड़ते थे, प्रलोभन देने पड़ते थे और अन्यान्य पदार्थों का दान करना पड़ता था। किसान अपने ऊपर हो रहे अन्याय के विरुद्ध कहीं शिकायत नहीं कर सकता था। सुनने वाला ही कौन था ? जागीरदारों की खैरियत इसी में थी कि ऐसे अत्याचारों की ओर से आंखें मूंद लें। उनकी अनसुनी कर दें। किसान लगान देकर भी इस बात का विश्वास नहीं प्राप्त कर सकता था कि उसकी जान और माल की हिफाजत सरकार करेगी। हिन्दू रैयत और भी अधिक प्रपीड़ित थी। उसके प्रति तनिक भी राहत या दया नहीं दिखाई जाती थी। किसानों और खेतिहर मजदूरों में हिंदुओं की संख्या अधिक थी। इन किसानों की तुलना भेड़ों के उन झुंडों से की गई है जिसका कोई हकवारा भी नहीं था जो उन्हें भेड़ियों से बचा सके। फरीद आकर उनका रखवाला बन गया। सबसे पहले उसने मुकद्दम और पटवारी जैसे कर्मियों को ठीक किया जो जागीरदार को अंधेरे में रखकर जनता का खून चूसते थे, उनसे तरह तरह के कर वसूल करते थे। अन्य सरकारी कर्मचारियों द्वारा प्रजा के प्रति किए जाने वाले अत्याचार का अंत किया। इससे जागीर की आय बढ़ी। सुशासन के लिए उसने दो उपाय किए। एक तो किसानों की स्थानीय सेना का गठन किया और उसके द्वारा अत्याचारी जमींदारों का दमन किया; दूसरे, लगान निश्चित करने में उसने उदारता दिखाई परंतु उसकी वसूली कड़ाई के साथ की गई। भूमिकर जिंस या नकदी में दिए जा सकते थे।
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