गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण शिव पुराणहनुमानप्रसाद पोद्दार
|
0 |
भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
शिवलिंग की स्थापना, उसके लक्षण और पूजन की विधि का वर्णन तथा शिवपद की प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मों का विवेचन
ऋषियों ने पूछा- सूतजी! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिये? उसका लक्षण क्या है? तथा उसकी पूजा कैसे करनी चाहिये, किस देश-काल में करनी चाहिये और किस द्रव्य के द्वारा उसका निर्माण होना चाहिये?
सूतजी ने कहा- महर्षियो! मैं तुमलोगों के लिये इस विषय का वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में नदी आदि के तटपर अपनी रुचि के अनुसार ऐसी जगह शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिये, जहाँ नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा तैजस पदार्थ से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को उस पूजन का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है। सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग की यदि पूजा की जाय तो वह तत्काल पूजा का फल देनेवाला होता है। यदि चलप्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिये छोटा-सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है और यदि अचलप्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना गया है। उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठसहित स्थापना करनी चाहिये। शिवलिंग का पीठ मण्डलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के पाये की भांति ऊपर-नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिये। ऐसा लिंगपीठ महान् फल देनेवाला होता है! पहले मिट्टी से, प्रस्तर आदि से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिये। जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिये, यही स्थावर (अचलप्रतिष्ठा वाले ) शिवलिंग की विशेष बात है। चर (चलप्रतिष्ठावाले) शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिये, किंतु बाणलिंग के लिये यह नियम नहीं है।
|