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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिव पुराण

शिव पुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


रात के पिछले पहर को उषःकाल जानना चाहिये। उस अन्तिम प्रहर का जो आधा या मध्यभाग है, उसे संधि कहते हैं। उस संधिकाल में उठकर द्विज को मल-मूत्र आदि का त्याग करना चाहिये। घर से दूर जाकर बाहर से अपने शरीर को ढके रखकर दिन में उत्तराभिमुख बैठकर मल-मूत्र का त्याग करे। यदि उत्तराभिमुख बैठने में कोई रुकावट हो तो दूसरी दिशा की ओर मुख करके बैठे। जल, अग्नि, ब्राह्मण आदि तथा देवताओं का सामना बचाकर बैठे। मल- त्याग करके उठने पर फिर उस मल को न देखे। तदनन्तर जलाशय से बाहर निकाले हुए जल से ही गुदा की शुद्धि करे अथवा देवताओं, पितरों तथा ऋषियों के तीर्थों में उतरे बिना ही प्राप्त हुए जल से शुद्धि करनी चाहिये। गुदा में सात, पाँच या तीन बार मिट्टी लगाकर उसे धोकर शुद्ध करे। लिंग में ककोड़े के फल के बराबर मिट्टी लेकर लगाये और उसे धो दे। परंतु गुदा में लगाने के लिये एक पसर मिट्टी की आवश्यकता होती है। लिंग और गुदा की शुद्धि के पश्चात् उठकर अन्यत्र जाय और हाथ-पैरों की शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करे। जिस किसी वृक्ष के पत्ते से अथवा उसके पतले काष्ठ से जल के बाहर दतुअन करना चाहिये। उस समय तर्जनी अंगुलि का उपयोग न करे। यह दत्तशुद्धि का विधान बताया गया है। तदनन्तर जल-सम्बन्धी देवताओं को नमस्कार करके मन्त्रपाठ करते हुए जलाशय में स्नान करे।

यदि कण्ठतक या कमर तक पानी में खड़े होने की शक्ति न हो तो घुटने तक जल में खड़ा हो अपने ऊपर जल छिड़ककर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान-कार्य सम्पन्न करे। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वहीं तीर्थजल से देवता आदि का स्नानांग-तर्पण भी करे।

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