धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
मातंगी
मतंग भी शिव का नाम है और इनकी शक्ति ही मातंगी है। मातंगी के ध्यान में बताया गया है कि ये श्याम वर्ण की हैं और चंद्रमा को मस्तक पर धारण किए हुए हैं। भगवती मातंगी त्रिनेत्रा, रत्नमय सिंहासन पर आसीन, नील कमल के समान कांति वाली तथा राक्षस समूह रूप अरण्य को भस्म करने में दावानल के समान हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अंकुश, खेटक और खड्ग धारण कर रखा है। ये असुरों को मोहित करने वाली एवं भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ सिद्ध करने और वाग्विलास में पारंगत होने के लिए इनकी साधना-उपासना श्रेयस्कर है।
भगवती मातंगी दस महाविद्याओं में नौवें स्थान पर परिगणित हैं। 'नारद पाञ्चरात्र के बारहवें अध्याय में शिव को चांडाल' तथा शिवा को 'उच्छिष्ट चांडाली' कहा गया है। यही उच्छिष्ट चांडाली मातंगी हैं। पुरातन काल में मतंग नामक मुनि ने नाना वृक्षों से परिपूर्ण कदंब वन में सभी जीवों को वश में करने के लिए भगवती त्रिपुरा की प्रसन्नता हेतु कठोर तपस्या की थी। उस समय त्रिपुरा के नेत्र से उत्पन्न तेज ने एक श्यामल नारी-विग्रह का रूप धारण कर लिया। इन्हें ‘राज मातंगिनी' कहा गया। यह दक्षिण तथा पश्चिमाम्नाय की देवी हैं। राजमातंगिनी, सुमुखी, वश्यमातंगी तथा कर्णमातंगी इनके नामांतर हैं। मातंगी के भैरव का नाम मतंग है। 'ब्रह्मयामल तंत्र' में इन्हें मतंग मुनि की कन्या बताया गया है। दश महाविद्याओं में मातंगी की उपासना विशेष रूप से वासिद्धि के लिए की जाती है। 'पुरश्चर्यार्णव' में कहा गया है-
अक्षयवक्ष्ये महादेवी मातंगी सर्वसिद्धिदाम्।
अस्याः सेवनमात्रेण वासिद्धि लभते ध्रुवम्॥
मातंगी स्थूलरूपात्मक प्रतीक विधान को देखने से ज्ञात होता है कि ये पूर्णतया वाग्देवता की ही मूर्ति हैं। मातंगी का श्याम वर्ण परावाक् बिंदु है। उनका त्रिनयन सूर्य, सोम और अग्नि है। उनकी चार भुजाएं चार वेद हैं। पाश अविद्या है, अंकुश विद्या है तथा कर्मराशि दंड है। शब्द-स्पर्शादि गुण कृपाण हैं। अर्थात पंचभूतात्मक सृष्टि के प्रतीक हैं। कदंब वन ब्रह्मांड का प्रतीक है।'योगराजोपनिषद' में ब्रह्मलोक को कदंब की तरह गोलाकार कहा गया है; यथाकंदबगोलकाकारं ब्रह्मलोकं ब्रजन्ति ते। भगवती मातंगी का सिंहासन शिवात्मक और त्रिकोण है। उनकी मूर्ति सूक्ष्म रूप में तंत्र तथा पररूप में भावनामात्र है।
'दुर्गा सप्तशती' के सातवें अध्याय में भगवती मातंगी के ध्यान में कहा गया है कि वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर बोलते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमल पर रखे हुए हैं। वे अपने मस्तक पर अर्द्धचंद्र तथा गले में कल्हार पुष्पों की माला धारण करती हैं। कमल वर्णात्मक सृष्टि का प्रतीक है। शंखपात्र ब्रह्मरंध्र तथा अमृत का प्रतीक है। रक्तवस्त्र अग्नि या ज्ञान का प्रतीक है। यदि वाग्देवी के अर्थ में मातंगी व्याकरण रूपा हैं तो शुक शिक्षा का प्रतीक है। चार भुजाएं वेदचतुष्टय हैं। इस प्रकार तांत्रिकों की भगवती मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।
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