धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
मनसा देवी
मनसा देवी कश्यप ऋषि की मानसी कन्या हैं। इस कारण ये मनसा देवी के नाम से विख्यात हैं। इन देवी ने वर्षों तक भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की थी। तपस्या से इनका शरीर जीर्ण हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने मनसा का जीर्ण शरीर देखकर उनका नाम 'जरत्कारु' रख दिया। कश्यप ऋषि ने जरत्कारु ऋषि के साथ इनका विवाह कर दिया, इसलिए ये जरत्कारुप्रिया' के नाम से भी प्रसिद्ध हुईं। इनके पुत्र का नाम 'आस्तीक' है।
मनसा, जरत्कारु, जगौरी, सिद्धियोगिनी, वैष्णवी, नागभागिनी, नागेश्वरी, शैवी, जरत्कारुप्रिया, आस्तीक माता, विषहरी और महाज्ञानयुता-इन बारह नामों से मनसा देवी की पूजा की जाती है। जो पुरुष पूजा के समय इन बारह नामों का पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशज को सर्प का भय नहीं होता। यदि किसी भवन या स्थान पर बहुत से सर्यों का वास हो तो वहां इन बारह नामों का पाठ करने से वह स्थान सर्प भय से मुक्त हो जाता है।
मनसा देवी के पति जरत्कारु बड़े योगी और तपस्वी थे। एक दिन वे पुष्कर क्षेत्र में वट वृक्ष के नीचे अपनी पत्नी मनसा देवी की जांघ पर सिर रखकर लेट गए और उन्हें नींद आ गई। सायंकाल का समय होने पर सूर्य अस्ताचल को जाने लगा। मनसा देवी परम साध्वी और पतिव्रता थीं। उन्होंने मन में विचार किया कि द्विजों के लिए नित्य सायंकाल में संध्या करने का विधान है। यदि मेरे पति सोते ही रहे तो इन्हें संध्या न करने का पाप लग जाएगा। यह विचार करके मनसा देवी ने अपने पतिदेव को जगा दिया।
मुनिवर जरत्कारु जागने पर क्रोध में भर गए और बोले, “मैं सुखपूर्वक सो रहा था, तुमने मेरी निद्रा भंग क्यों की?"
साध्वी मनसा भय से कांपने लगीं और भक्तिपूर्वक अपने स्वामी जरत्कारु के चरण-कमलों में गिरकर बोलीं, 'हे प्राणनाथ! आपकी संध्या का लोप न हो। जाए, इसी भय से मैंने आपको जगा दिया, यह मेरा दोष अवश्य है।"
लेकिन जरत्कारु का क्रोध शांत न हुआ और उन्होंने अपनी साध्वी पत्नी का त्याग कर दिया। ऐसे समय मनसा देवी ने अपने गुरुदेव शंकर, जन्मदाता कश्यप और अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण का स्मरण किया। मनसा देवी द्वारा मन से चिंतन करने पर शिव, कश्यप और भगवान श्रीकृष्ण वहां पहुंच गए।
श्रीकृष्ण जरत्कारु ऋषि के इष्ट थे। उन सबको जरत्कारु ने प्रणाम किया और उनके पधारने का कारण पूछा। तब उन्होंने कहा, "यदि तुम अपनी साध्वी पत्नी को त्यागना चाहते हो तो पहले इसे माता का पद प्राप्त कराओ। जो पुरुष पुत्रोत्पत्ति के बिना पत्नी का त्याग करता है, उसके पुण्य क्षीण हो जाते हैं।''
तब जरत्कारु ने मंत्र पढ़कर योगबल का सहारा लेकर मनसा देवी की नाभि का स्पर्श कर दिया और कहा, 'मनसे! इस गर्भ से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। वह पुत्र धार्मिक, जितेंद्रिय, ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी, यशस्वी और भक्त होगा।'
यह कहकर जरत्कारु तपस्या करने चले गए और मनसा देवी भी कैलास पर पहुंचकर शंकर भगवान के मंदिर में रहने लगीं। शोक संतप्त मनसा देवी को पार्वती ने भली-भांति समझाया। फिर एक दिन मंगलवार को शुभ नक्षत्र में साध्वी मनसा देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया। भगवान शंकर ने उसका नामकरण आदि संस्कार कराए। उस पुत्र का नाम रखा–आस्तीक। श्री शिव ने स्वयं आस्तीक को चारों वेद और वेदांग पढ़ाए तथा ज्ञानोपदेश दिया। उसके बाद पुत्र आस्तीक को लेकर मनसा देवी अपने पिता कश्यप के आश्रम में चली गईं।
जब राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग-यज्ञ प्रारंभ किया, तब ब्राह्मण मंडली इंद्र सहित तक्षक को मारने के लिए तैयार हो गई। ऐसी स्थिति में प्राण रक्षा के लिए इंद्र भगवती मनसा के पास गए और उनकी स्तुति की। इंद्र की स्तुति से प्रसन्न होकर मनसा देवी ने अपने पुत्र आस्तीक को जनमेजय के नागयज्ञ में भेजकर इंद्र की प्राण रक्षा की।
जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक मनसा देवी की पूजा करेंगे; उनके यहां पुत्र, पौत्र और धन की वृद्धि होगी। साथ ही वे यशस्वी, कीर्तिमान, विद्वान और गुणी होंगे। माया नगरी हरिद्वार में हर की पौड़ी के पास पहाड़ी पर मनसा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। वहां प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
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