धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
धनदायिनी लक्ष्मी
संपूर्ण जगत में जितनी भी शोभा और संपत्ति है, वह सब जगत जननी जगदंबा भगवती लक्ष्मी की ही देन है। श्री लक्ष्मी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। वे श्री हरि के साथ वैकुंठ में नित्य निवास करती हैं और जगत पालन में उनको सहयोग देती हैं। वे लीलामयी भगवती लक्ष्मी समय-समय पर प्रकट होती हैं। और अपनी दिव्य-मधुर लीला से लोक-कल्याण करती हैं। एक बार क्रोधमूर्ति दुर्वासा के शाप से तीनों लोकों की श्री नष्ट हो गई। तीनों लोकों को पुनः शोभा प्राप्त होने का एक ही उपाय था कि साक्षात लक्ष्मी ब्रह्मांड में पधारें। लोकमंगल के लिए लक्ष्मी के प्राकट्य की आवश्यकता थी, अतः जगत कल्याण हेतु उनके प्रकट होने की इच्छा की कथा इस प्रकार है-
अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन हो रहा था। मंथन करते-करते सरअसुर थक चुके थे, तब स्वयं नारायण समुद्र-मंथन के कार्य में जुट पड़े। वे एक हाथ से वासुकि नाग की पूंछ और दूसरे हाथ से सिर पकड़ कर मंथन करने लगे। सबसे पहले कालकूट विष निकला, उससे संसार झुलसने लगा। प्रलयकर्ता भगवान शिव ने उस विष को पीकर जगत की रक्षा की। विष के बाद एक-एक करके समुद्र से रत्न निकलने लगे, तभी समुद्र से शोभा की स्रोत लक्ष्मी जी प्रकट हुईं। उन्हें देखकर सब आश्चर्य में पड़ गए। उनके दिव्य सौंदर्य पर सभी मुग्ध थे। सुरासुरों के मन में यही इच्छा थी कि वे हमें वरण करें।
इसी कामना से सभी लोगों ने लक्ष्मी का सत्कार किया। जगदंबा लक्ष्मी ने सबकी सेवा स्वीकार की क्योंकि सभी उन्हीं के पुत्र और सेवक हैं। तदनंतर लक्ष्मी हाथ में माला लिए अपने योग्य पुरुष का वरण करने हेतु निहारती हुई आगे बढ़ने लगी किंतु उनमें से कोई भी उन्हें अपने अनुरूप न लगा। फिर लक्ष्मी की दृष्टि भगवान विष्णु की ओर गई जो समुदमंथन के कार्य में जुटे हुए थे। विष्णु जी पहली नजर में ही लक्ष्मी को भा गए। किंतु वे सौंदर्य की कोष लक्ष्मी को देख ही नहीं रहे थे। लक्ष्मी ने उन्हीं के गले में वरमाला डाल दी। फिर क्या था, विष्णु ने लक्ष्मी को अपनी चिरसंगिनी बना लिया। वस्तुत: लक्ष्मी जी विष्णु के हृदय में नित्य निवास करती हैं। यह तो उनके प्राकट्य की लीला थी।
लक्ष्मी जी कमलासना, गरुड़ासना और ऐरावतारूढ़ा हैं। जब भगवान को भूलकर उनकी आराधना की जाती है तो वे उलूकवाहन होती हैं और चंचला बन जाती हैं। चपला, चंचला, कमला, कमलवासिनी, पद्मासना, श्रीजगन्माता आदि उनके नाम हैं। भगवती लक्ष्मी चल-अचल, दृश्य-अदृश्य सब संपत्तियों, सिद्धियों और निधियों की स्वामिनी हैं, अतएव इनके पूजन-स्तुति करने का विधान है। आठ लक्ष्मियों के नाम इस प्रकार हैं-आद्य लक्ष्मी, विद्या लक्ष्मी, सौभाग्य लक्ष्मी, अमृत लक्ष्मी, काम लक्ष्मी, सत्य लक्ष्मी, भोग लक्ष्मी और योग लक्ष्मी। कार्तिक मास की अमावस्या को यानी दीपावली के दिन प्रदोषकाल में पूरे देश में अत्यंत धूमधाम के साथ लक्ष्मी की पूजा की जाती है।
सृष्टि के आदिकाल से ही लक्ष्मी जी की जय जयकार रही है। राजाओं, महाराजाओं और चक्रवर्ती राजाओं के यहां जो एश्वर्य था, वह लक्ष्मी की कृपा के कारण ही था। बड़े बड़े राजा-महाराजाओं में जितने भी युद्ध हुए, वे सब अपनी राज्य लक्ष्मी को बढ़ाने के लिए ही लड़े गए। यहां तक कि धर्मयुद्धों का मूल कारण भी विविध स्वरूपों वाली लक्ष्मी को ही प्राप्त करना था।
त्रेता युग में राम-रावण के बीच जो भयंकर युद्ध हुआ, वह लक्ष्मी स्वरूपा भगवती सीता के लिए ही लड़ा गया था। द्वापर युग में कुरुक्षेत्र के मैदान में जो महासंग्राम हुआ और जिसमें अठारह अक्षौहिणी सेना के रक्त से भूमि रक्तरंजित हुई, वह भी लक्ष्मी तुल्य देवी द्रौपदी के कारण हुआ था। समुद्र मंथन के समय समुद्र से निकले चौदह रत्नों के अंतर्गत जब लक्ष्मी निकलीं तो उन्हें प्राप्त करने के लिए देवता और असुर सभी लालायित हो उठे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए सब उनकी सेवा में जुट गए। किसी ने उनके लिए आसन बिछाया और किसी ने उनके आचमन के लिए जल लाकर रखा। किसी ने उन्हें वस्त्र प्रदान किए तो किसी ने उनको मणिमंडित आभूषण भेंट किए। लेकिन जैसे छाया के पीछे चलने से छाया नहीं मिलती, वैसे ही लक्ष्मी के पीछे पड़ने से लक्ष्मी नहीं मिलती, अत: वह उनमें से किसी को भी नहीं प्राप्त हुई।
लक्ष्मी अकाम विष्णु को ही प्राप्त हुई। जिसके पास जितनी अधिक लक्ष्मी है, वह उतना ही अधिक संपन्न व्यक्ति कहलाता है। लक्ष्मीहीन व्यक्ति को दरिद्र की संज्ञा दी जाती है। हमेशा से जगत में धनपतियों का मान-सम्मान रहा है और दरिद्रों को दुत्कारा जाता रहा है। जिसके पास लक्ष्मी है, उसके अवगुण भी गुण दिखाई देते हैं जबकि दरिद्र व्यक्ति के गुण भी अवगुण दिखाई देते हैं।
आज का युग अर्थ युग है। चारों ओर धन का बोलबाला है। धनिकों को पूजा जा रहा है और उन्हीं को पद-सम्मान दिया जा रहा है। चाटुकार लोग उनका गुणगान करते नहीं थकते । मोक्ष दिलाने वाली विद्या अर्थकारी बनकर रह गई है। वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य धनार्जन करना है। आज का शिक्षित वर्ग अपना शारीरिक और बुद्धिबल धनार्जन में ही लगा रहा है। हर क्षेत्र में धनार्जन हेतु प्रतिस्पर्धा हो रही है। चंचला लक्ष्मी के पीछे दुनिया अंधी होकर दौड़ रही है। परोपकार, समाजोत्थान, देश रक्षा तथा मानवता की बातें केवल पुस्तकों में लिखी मात्र रह गई हैं और अब ऐसी पुस्तकों को कोई भूल से भी उठाकर नहीं देखता। धन को सुख का मूल मानकर सभी लक्ष्मी की लालसा में मग्न हैं।
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