धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
नृसिंह
प्रह्लाद आदि भक्तों को निडर करने और दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। पृथ्वी का उद्धार करने के लिए उन्होंने वराह रूप धारण कर हिरण्याक्ष का वध किया था। इससे उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु श्री विष्णु से रुष्ट हो गया। उसने अजेय होने के लिए हजारों वर्षों तक घोर तप किया। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने प्रकट होकर उससे वर मांगने को कहा। हिरण्यकशिपु बोला, “मैं न दिन में मरूं, न रात में। मैं देव, दैत्य, मानव और पशु से भी न मारा जाऊं। मेरी मृत्यु न भवन के भीतर हो और न बाहर।'' ब्रह्माजी “तथास्तु" कहकर अंतर्धान हो गए।
मनचाहा वर पाकर हिरण्यकशिपु ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। वह भगवान विष्णु के नाम से चिढ़ता था, किंतु उसका छोटा पुत्र प्रहलाद जन्म से ही श्रीहरि का भक्त था। उसे पढ़ने के लिए गुरुकुल भेजा गया। वहां उसने धर्मार्थ काम की शिक्षा प्राप्त की। घर आने पर पिता ने पूछा तो उसने हरि-भक्ति को ही
श्रेष्ठ बताया। यह सुनते ही हिरण्यकशिपु आग-बबूला हो गया। उसने प्रहलाद को मार डालने का आदेश दे दिया।
दैत्यराज का आदेश पाकर असुरों ने प्रह्लाद पर शस्त्रों से आघात किया, लेकिन तलवारें टूट गईं और भाले मुड़ गए। दैत्यराज चौंका। फिर उसने प्रहलाद के पास विषैले सांप छोड़े, परंतु वे फन उठाकर झूमने लगे। जब वह विष से भी न मरा, तो मत्त गजराज के सामने डाल दिया। लेकिन गजराज ने सूंड़ से उठाकर उसे मस्तक पर बिठा लिया। पर्वत से नीचे फेंकने पर भी प्रहलाद का बाल बांका न हुआ। पत्थर बांधकर समुद्र में डुबोने पर भी वह न मरा। अंत में गुरु-पुत्र प्रहलाद को फिर आश्रम में ले गए, किंतु प्रह्लाद उनकी शिक्षा पर ध्यान न देकर विद्यार्थियों को भगवत भक्ति का पाठ पढ़ाने लगा।
गुरु-पुत्र ने हिरण्यकशिपु से शिकायत की कि प्रहलाद तो सब शिष्यों को अपना ही पाठ पढ़ा रहा है। यह सुनकर दैत्यराज ने यह निश्चय किया कि अब उसे अपने ही हाथों से मार डालना चाहिए। उसने प्रह्लाद को दरबार में ले जाकर खंभे से बंधवा दिया और बोला, "तू किसके बल पर निडर होकर मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम कर रहा है?"
प्रह्लाद ने कहा, "पिताजी! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक चर-अचर प्राणी जिनके वश में है और जो संसार के समस्त बलवानों के बल हैं, मुझमें भी उन्हीं भगवान विष्णु का दिया हुआ बल है।"
यह सुनकर दैत्यराज के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह बोला, "मैं अभी तेरा सिर धड़ से अलग किए देता हूं। अब बता तेरा भगवान कहां है?" यह कहकर उसने हाथ में खड्ग ली और सिंहासन से कूद पड़ा।
प्रह्लाद निडर होकर बोला, "श्रीहरि तो मुझमें, आप में, खड्ग में और सर्वत्र व्याप्त हैं।"
“सर्वत्र हैं तो क्या इस खंभे में भी हैं?" दैत्यराज बोला।
प्रह्लाद बोला, "हां, पिताजी!''
यह सुनते ही हिरण्यकशिपु ने खंभे पर मुक्का मारा। खंभे से बड़ी भयंकर गर्जना करते विचित्र रूप धारण किए भगवान नृसिंह प्रकट हुए। उनका पूरा शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का था। आग के समान प्रज्वलित आंखें, विकराल दाढ़े और तेज आयुधों जैसे बड़े-बड़े नाखून थे।
उस अलौकिक रूप को देखकर हिरण्यकशिपु चकित था। वह सिंहनाद करता नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा। दोनों में घोर युद्ध हुआ। तत्पश्चात नृसिंह भगवान दैत्यराज को पकड़कर सभा के दरवाजे पर ले गए और अपनी जांघों पर लिटाकर तेज नाखूनों से उसकी छाती को चीर डाला। यह देखकर देवता डर गए, किंतु प्रहलाद ने निडर होकर भगवान नृसिंह की स्तुति की। प्रहलाद को सिंहासन पर बैठाकर भगवान नृसिंह अंतर्धान हो गए।
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