धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
परशुराम
पृथ्वी को ब्राह्मणद्रोही क्षत्रियों से विहीन करने के लिए भगवान विष्णु का परशुराम के रूप में अवतार हुआ। भृगुवंशी जमदग्नि मुनि के पांच पुत्रों में परशुराम सबसे छोटे थे। भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव माता रेणुका के गर्भ से हुआ था। एक बार माता रेणुका के मन में किसी राजा को नदी में स्नान करते देखकर काम भाव जाग्रत हो गया। पत्नी का मनोविकार विज्ञ मुनिवर से छिपा न रह सका। उन्होंने पत्नी रेणुका का वध करने के लिए पुत्रों से कहा, किंतु मोहवश चार पुत्र मां का वध न कर सके।
बाद में जमदग्नि ने छोटे पुत्र परशुराम से कहा तो पितृभक्त परशुराम ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके फरसे से अपनी माता का सिर काट डाला। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने के लिए कहा तो वे बोले, ''पिताजी, मेरी माता जीवित हो जाएं और उनका मानस-पाप नष्ट हो जाए। युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न हो और मेरी दीर्घायु हो।'' परम तपस्वी जमदग्नि ने वर देकर परशुराम की सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर दीं।
एक बार सहस्रबाहु अर्जुन सेना सहित जमदग्नि के आश्रम के पास से गुजर रहे थे। महर्षि जमदग्नि ने उन्हें आमंत्रित करके कामधेनु की कृपा से सबका भव्य सत्कार किया। राजा को गाय भा गई। जब मांगने पर भी महर्षि ने उसे गाय नहीं दी तो वह बलपूर्वक छीनकर ले गया। परशुराम राजा का अन्याय न सह सके। वे अकेले ही सहस्रबाहु अर्जुन का युद्ध में वध करके कामधेनु को लौटा लाए। पिता के वध से सहस्रार्जुन के पुत्र आग-बबूला हो गए।
एक दिन परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम में आकर उन्होंने यज्ञशाला में ध्यानस्थ महर्षि जमदग्नि को मार डाला और उनका मस्तक लेकर भाग गए। जब परशुराम घर लौटे तो उन्होंने माता का करुण क्रंदन सुना। पति की मृत्यु से व्याकुल रेणुका ने रोते समय इक्कीस बार अपनी छाती पर मुक्के मारे। परशुराम की क्रोधाग्नि भड़क उठी। वे सहस्रार्जुन के पुत्रों का वध कर अपने पिता का मस्तक ले आए। पिता का दाह-संस्कार करके उन्होंने क्षत्रियों का संहार करने की प्रतिज्ञा की। वे क्षत्रियद्रोही हो गए। उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया और सारी पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। तब महर्षि कश्यप ने कहा, “अब मेरी भूमि पर रात्रि में निवास न करना।'' तब से भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर रहने लगे।
श्रीराम द्वारा शिव-धनुष को तोड़ने का समाचार सुनकर भृगुकुल-नंदन जमदग्नि कुमार भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत से इतने वेग से आए कि तत्काल सीता स्वयंवर में उपस्थित हो गए। उस समय उनमें अद्भुत तेज था। वे बड़े भयानक दिख रहे थे। उन्होंने मस्तक पर बड़ी-बड़ी जटाएं धारण कर रखी थीं। वे कंधे पर फरसा-तूणीर तथा हाथ में चमकता भयंकर वैष्णव धनुष और बाण लिए हुए प्रलयंकर शिव के समान लग रहे थे। उनका भयंकर रूप देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो गए और डर से खड़े होकर अपना नाम ले-लेकर दंडवत प्रणाम करने लगे।
द्वापर युग में काशीराज की बड़ी पुत्री अंबा के विवाह को लेकर भगवान परशुराम का अपने ही शिष्य गंगापुत्र भीष्म के साथ 23 दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ। चिरंजीवी परशुराम और इच्छामृत्यु का वर प्राप्त भीष्म के युद्ध का अंत न देखकर देवर्षि नारद और अन्य ऋषियों ने प्रार्थना करके युद्ध बंद करवाया। भगवान परशुराम कल्पांत अमर हैं और महेंद्र पर्वत पर सदैव विद्यमान रहते हैं। योग्य अधिकारी ही उनके दर्शन कर पाते हैं।
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