धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
बलराम
श्री कृष्णावतार पिछले द्वापर में सत्ताईस कलियुगों के पश्चात हुआ था लेकिन द्वापर में पृथ्वी का भार हरण करने के लिए प्रायः भगवान बलराम ही पधारते हैं। उन्हीं को श्रुतियां द्वापर का युगावतार कहती हैं। वे माता देवकी के सप्तम गर्भ से पधारे थे। योगमाया ने गोकुल में नंद बाबा के यहां रोहिणी की गोद में उन्हें पहुंचा दिया। इस प्रकार वे ‘संकर्षण' कहलाए। इनकी गोकुल, मथुरा और द्वारका की कई लीलाएं बड़ी अद्भुत एवं आनंददायिनी हैं।
श्रीकृष्ण और बलराम परस्पर नित्य अभिन्न हैं। उनकी चरित-चर्चा एकदूसरे से पृथक है ही नहीं। गोकुल में दोनों ने संग-संग बालक्रीड़ा की और वहां से वृंदावन की ओर प्रस्थान किया। बहुत थोड़े से चरित हैं, जब श्यामसुंदर के साथ उनके अग्रज नहीं थे। ऐसे ही बलराम जी अपने अनुज से पृथक बहुत कम रहे हैं। एक बार वहां कंस द्वारा प्रेरित असुर प्रलंब आया था। श्रीकृष्ण को तो कोई साथी चाहिए था खेलने के लिए। उन्होंने एक नवीन गोप-बालक को देखा और उसे अपने दल में मिला लिया। असुर ने श्याम के दैत्य-दलन चरित सुने थे। उसे उनसे भय लगा। अपने छद्मवेश में वह दाऊ को पीठ पर बैठाने में सफल हुआ और बड़ी तेजी से भागा। जो संपूर्ण ब्रह्मांड का धारक है, उसे भला कौन ले जा सकता है। दैत्य को अपना स्वरूप प्रकट करना पड़ा। तभी उसके मस्तक पर एक घुसा पड़ा और उसे मृत्युलोक में जाना पड़ा।
एक दिन गोपों ने बलराम से कहा कि ताड़वन से उठती पके ताड़ फलों की सुगंध उन्हें अपनी ओर खींच रही है। फिर क्या था—बलराम ताड़वन में घुस गए। ताड़वन के रक्षक धेनुकासुर जो वहां अपने परिवार के साथ रहता था, ने बलराम को मारना चाहा। ऐसे में बलराम ने धेनुकासुर और उसके पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया। जिस ताड़वन में मनुष्य तो क्या, पशु तक न जा सकते थे, उसे सबके लिए निर्बाध कर दिया। इस प्रकार भगवान बलराम ने सखाओं को ताड़ फल प्रदान करने के बहाने पूरे असुर समूह का नाश किया।
कन्हैया महाचंचल हैं किंतु दाऊ भैया गंभीर, परमोदार और शांत हैं। श्याम उन्हीं का संकोच भी करते हैं। बलराम भी जैसे अपने अनुज की इच्छा को देखते रहते हैं। ब्रज-लीला में श्याम ने शंखचूड़ को मारकर समस्त गोप-नारियों के सम्मख उस यक्ष का शिरोरत्न अपने अग्रज को उपहार स्वरूप दे दिया। कंस दारा भेजा गया उन्मत्त गजराज कुवलयापीड दोनों भाइयों के थप्पड़ों और घूसों को शिकार हुआ। मल्लशाला में चाणूर को श्याम ने पछाड़ा और मुष्टिक भगवान बलराम की मुष्टिका की भेंट चढ़ गया।
दोनों भाइयों ने गुरु गृह में साथ-साथ निवास किया। जरासंध को बलराम ही अपने योग्य प्रतिद्वंद्वी जान पड़े। यदि श्रीकृष्ण ने अपने अग्रज से उसे छोड़ देने की प्रार्थना न की होती तो वह बलराम द्वारा मार दिया जाता। जिसे सत्रह युद्धों में पकडकर छोड़ दिया, उसी के सामने से अठारहवीं बार भागना कोई अच्छी बात नहीं थी। क्या किया जाए? श्रीकृष्ण ने प्रातः से वह दिन पलायन के लिए निर्धारित कर लिया था। कालयवन के सम्मुख वे अकेले भागे। जरासंध के सम्मुख भागने के लिए इतना आग्रह किया कि अग्रज को साथ भागना पड़ा।
कुंडिनपुर के राजा भीष्मक की कन्या रुक्मिणी के विवाह में शिशुपाल के साथ जरासंधादि ससैन्य आ रहे हैं, यह समाचार सबको मिल चुका था। वहां अकेले श्रीकृष्ण कन्या-हरण करने गए, यह तो अच्छा नहीं हुआ। बलराम ने यादवी सेना सज्जित की। वे इतनी शीघ्रता से चले कि श्रीकृष्ण मार्ग में ही मिल गए। श्यामसुंदर को केवल रुक्मिणी को लेकर चल देना था। शिशुपाल और उसके साथी बलराम के सैन्य समूह से ही पराजित हुए।
जब बलराम राजाओं की सेना को परास्त कर आगे बढ़े तो रुक्मी की सेना आ गई। उसके साथ उलझने में कुछ विलंब हुआ। फिर आगे जाकर देखा कि छोटे भाई ने अपने साले रुक्मी को पराजित करके रथ में बांध रखा है। उसके केश, श्मश्रु आदि मुंडित कर दिए हैं। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आई। उन्होंने उसे छुड़ा दिया परंतु आगे चलकर रुक्मी ने अपने स्वभाववश बलराम का अपमान किया, तब वह उन्हीं के हाथों मारा गया।
दुर्योधन भी मदमत्त हो उठा था। क्या हुआ जो श्रीकृष्ण के पुत्र सांब ने उसकी पुत्री लक्ष्मणा का हरण किया? क्षत्रिय के लिए स्वयंवर में कन्या-हरण करना तो कोई अपराध नहीं है। अकेले लड़के को छह महारथियों ने मिलकर बंदी बनाया, यह तो अन्याय ही था। श्रीकृष्ण कितने रुष्ट हुए थे यह समाचार पाकर। वे नारायणी सेना के साथ जाने वाले थे कि बलराम ने छोटे भाई को शांत किया। दुर्योधन उनका शिष्य था। सत्राजित का वध करके शतधंवा जब स्यमंतक मणि लेकर भागा तो श्यामसुंदर के साथ बलभद्र ने उसका पीछा किया। वह मिथिला के समीप पहुंचकर मारा जा सका लेकिन मणि उसके वस्त्रों में नहीं मिली। बलराम इतने समीप आकर मिथिला नरेश से मिले बिना न लौट सके। दो मास तक वहीं दुर्योधन ने उनसे गदा-युद्ध की शिक्षा ली।
वही दुर्योधन यदुवंशियों को अपना कृपाजीवी और क्षुद्र कहकर चला गया था और बलराम के सम्मुख ही यादव महाराज उग्रसेन के प्रति उसने अपशब्द भी कहे थे। क्रुद्ध हलधर ने हल उठाया। हस्तिनापुर नगर घूमने लगा। वे धराधर नगर को यमुना में फेंकने जा रहे थे। उनका कहना था कि पशु डंडे से मानते हैं। अतः दंड से भीत कौरव शरणापन्न हुए। वे क्षमामय दंड का केवल नाटक करते हैं। क्या उन्हें भी रोष आता है?
महाभारत युद्ध में बलराम के एक ओर उनका प्रिय शिष्य दुर्योधन था और दूसरी ओर श्रीकृष्ण। अतः वे तीर्थयात्रा करने चले गए। नैमिष-क्षेत्र में इल्वल राक्षस का पुत्र बल्वल अपने उत्पात से ऋषियों को आकुल किए था। उन्होंने उस विपत्ति से तपस्वियों को त्राण दिलाया। जब वे तीर्थयात्रा से वापस लौटे तब महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। भीम तथा दुर्योधन का अंतिम संग्राम चल रहा था। दोनों में से कोई भी समझाने पर मानने को उद्यत नहीं था।
यदुवंश का उपसंहार तो होना ही था। भगवान की इच्छा से अभिशप्त यादव परस्पर संग्राम कर रहे थे। भगवान बलराम उन्हें समझाने तथा शांत करने गए परंतु मृत्यु के वश हुए उन लोगों ने उनकी बात नहीं सुनी और नष्ट हो गए। अब लीला-संवरण करना था। समुद्र तट पर उन्होंने आसन लगाया और अपने ‘सहस्रशीर्षा' स्वरूप से जल में प्रविष्ट हो गए।
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