धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
दुर्वासा
महातपस्वी तथा धर्मात्मा महर्षि दुर्वासा भगवान शंकर के ही अवतार रूप हैं। श्रेष्ठ धर्म का प्रवर्तन करने, भक्तों की धर्म परीक्षा करने तथा भक्ति की अभिवृद्धि करने के लिए साक्षात भगवान शंकर ने ही दुर्वासा मुनि के रूप में अवतार धारण कर अनेक प्रकार की लीलाएं की हैं।
इस अवतार की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- ब्रह्मज्ञानी अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। उनकी अनुसूया नामक सती-साध्वी धर्मपत्नी थीं। अनुसूया का पातिव्रत-धर्म विश्व-विश्रुत है। पुत्र की आकांक्षा से महर्षि अत्रि तथा देवी अनसूया ने ऋक्षकुल नामक पर्वत पर जाकर निर्विंध्या नदी के पावन तट पर सौ वर्ष तक दुष्कर तप किया।
उनके तप से एक उज्ज्वल अग्निमयी ज्वाला प्रकट हुई जिसने तीनों लोकों को व्याप्त कर लिया। देवता, ऋषि एवं मुनि-सभी चिंतित हो उठे। तब त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर उस स्थान पर गए जहां महर्षि अत्रि और देवी अनुसूया तप कर रहे थे। तदनंतर प्रसन्न होकर तीनों देवों ने उन्हें अपने-अपने अंश से एक-एक पुत्र (तीन पुत्र) प्राप्त करने का वर प्रदान किया।
वर के प्रभाव से ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय तथा भगवान शंकर के अंश से मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा का आविर्भाव हुआ। ये तीनों अत्रि और अनुसूया के पुत्र कहलाए। दुर्वासा के रूप में अवतार लेकर भगवान शंकर ने अनेक लीलाएं की हैं जो अति प्रसिद्ध हैं। भगवान शंकर के रुद्ररूप में महर्षि दुर्वासा प्रकट हुए थे, इसीलिए उनका रूप अति रौद्र था। वे अत्यंत क्रोधी थे, किंतु दयालुता की मूर्ति और करुणा संपन्न थे। भक्तों का दुख दूर करना तथा रौद्ररूप धारण कर दुष्टों का दमन करना ही उनका स्वभाव था।
‘शिव पुराण' में एक कथा इस प्रकार दी गई है-एक बार नदी में स्नान करते समय महर्षि दुर्वासा का वस्त्र नदी के प्रवाह में बह गया। कुछ दूरी पर देवी द्रौपदी भी स्नान कर रही थीं। उस समय द्रौपदी ने अपने अंचल का एक टुकड़ा फाड़कर उन्हें प्रदान किया। इससे प्रसन्न होकर शंकरावतार महर्षि दुर्वासा ने उन्हें वर दिया कि यह वस्त्र खंड वृद्धि को प्राप्त कर तुम्हारी लज्जा का निवारण करेगा और तुम सदा पांडवों को प्रसन्न रखोगी। इसी वर का प्रभाव था कि जब कौरव सभा में दु:शासन द्वारा द्रौपदी की साड़ी खींची जाने लगी तो वह बढ़ती ही चली गई। महर्षि दुर्वासा के वर के प्रभाव से द्रौपदी की लाज बच गई। इसी प्रकार इनके द्वारा अनेक भक्तों की रक्षा हुई।
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