धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
अवधूतेश्वर
परब्रह्म परमात्मा भगवान शिव गर्वापहारी हैं। उनका अवधूतेश्वरावतार देवराज इंद्र के गर्वापहरण के लिए हुआ था। इस दिव्य अवतार की कथा पापों का निवारण करने वाली तथा यश, स्वर्ग, भोग, मोक्ष एवं संपूर्ण मनोवांछित फलों को प्रदान करने वाली है। यह पुण्य कथा 'शिव पुराण' में इस प्रकार है-
प्राचीन काल की बात है। एक बार देवराज इंद्र संपूर्ण देवताओं और देवगुरु बृहस्पति जी को लेकर कैलास पर्वत गए। उस समय इंद्र के मन में अपने ऐश्वर्य और अधिकार का अहंकार भरा था। भगवान शिव तो अंतर्यामी हैं, उन परमात्मा से इंद्र का अहंकार छिपा न रहा। अतः उन्होंने इंद्र के कल्याण के लिए अवधूत का स्वरूप धारण किया और उनके रास्ते में खड़े हो गए। इंद्र ने उन अवधूतवेशधारी सदाशिव से पूछा, “तुम कौन हो? भगवान शिव अपने स्थान पर हैं या कहीं अन्यत्र गए हैं?"
परंतु बार-बार पूछने पर भी शिवजी ने इंद्र को कोई उत्तर नहीं दिया। इस प्रकार उस दिगंबर अवधूत द्वारा अपनी अवहेलना होते देख इंद्र क्रोधित हो गए और उन अवधूतवेशधारी सदाशिव को फटकारते हुए बोले, "अरे मूढ़ ! दुर्मते ! तू बार-बार पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देता, अतः मैं तुझ पर वज्र-प्रहार करता हूं। देखता हूं कि तुझे कौन बचाता है।''
इंद्र को वज्र-प्रहार हेतु उद्यत देखकर भगवान शिव ने उन्हें वज्र सहित स्तंभित कर दिया। ऐसी स्थिति में इंद्र की बांह अकड़ गई और वे मंत्र द्वारा अभिमंत्रित सर्प की भांति क्रोध से जलने लगे।
तभी उन अवधूतेश्वर स्वरूप भगवान शिव के ललाट से एक तेज निकला। उस प्रज्वलित तेज को इंद्र की ओर बढ़ते देखकर देवगुरु बृहस्पति ने समझ लिया कि ये कोई अन्य नहीं, अवधूतवेशधारी साक्षात परमात्मा भगवान शिव ही हैं। ऐसे में उन्होंने भगवान शिव की स्तुति की और इंद्र को उनके शरणागत करके उस प्रज्वलित तेज से उनकी रक्षा करने की प्रार्थना की।
भगवान शिव ने प्रसन्न होकर कहा, “हे देवगुरो ! रोषवश निकली इस अग्नि को मैं पुन: कैसे धारण कर सकता हूं, कहीं सर्प अपनी छोड़ी हुई केंचुल पुनः धारण करता है? फिर भी मैं तुमसे प्रसन्न हूं। तुमने इंद्र को जीवनदान दिलाया, अत: आज से तुम्हारा नाम 'जीव' प्रसिद्ध होगा। मेरे ललाटवर्ती नेत्र से निकली इस अग्नि को देवता नहीं सह सकते, अतः मैं इनके कल्याण के लिए इसे अन्यत्र प्रक्षिप्त करता हूं।" यह कहकर अवधूतवेशधारी शंकर ने उस भयंकर तेज को समुद्र में फेंक दिया। वहां गिरते ही वह एक बालक के रूप में बदल गया जो सिंधु-पुत्र ‘जलंधर' के नाम से विख्यात हुआ।
इस प्रकार अवधूतेश्वर का अवतार धारण कर इंद्र के गर्व का भंजन करके लीला-वपुधारी भगवान सदाशिव अंतर्धान हो गए।
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