धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
देवगुरु बृहस्पति
जैसे शुक्राचार्य असुरों के गुरु हैं, वैसे ही बृहस्पति देवों के गुरु हैं, अतः उन्हें ‘देवगुरु' कहा जाता है। 'महाभारत' के आदि पर्व के अनुसार देवगुरु बृहस्पति महर्षि अंगिरा के औरस पुत्र और देवताओं के पुरोहित हैं। उनका रंग पीला है। वे पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं और कमल पर विराजमान हैं। उनके सिर पर स्वर्ण मुकुट तथा गले में माला सुशोभित है। उनके चार हाथ हैं-एक हाथ में रुद्राक्ष की माला, दूसरे में दंड, तीसरे में पात्र तथा चौथे में वरमुद्रा है।
'ऋग्वेद' के अनुसार बृहस्पति बहुत सुंदर हैं। उनका भवन स्वर्ण का बना हुआ है। उनका वाहन रथ भी स्वर्णनिर्मित और सूर्य के समान देदीप्यमान है।
रथ में पीले रंग के आठ घोड़े जुते हैं जो पवन वेग से चलते हैं। देवगुरु अपने भक्तों से प्रसन्न होकर उन्हें बुद्धि और संपत्ति प्रदान करते हैं। शरणागत वत्सल देवगुरु भक्तों को सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करते हैं और संकटों से उनकी रक्षा करते हैं। जब-जब असुरगण देवताओं को युद्ध में पराजित कर स्वर्ग से खदेड़ देते हैं तब-तब बृहस्पति ही देवताओं को पुनः राज्य प्राप्त करने का उपाय बताते हैं। वे मंत्र बल से असुरों को दूर भगाकर देवताओं की रक्षा करते हैं।
देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियां हैं-शुभा, तारा और ममता। पहली पत्नी शुभा से सात कन्याएं उत्पन्न हुईं। दूसरी पत्नी तारा से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भरद्वाज और कच नामक दो पुत्र हुए। बृहस्पति के पुत्रों में महर्षि भरद्वाज विश्वविख्यात हैं। तीर्थराज प्रयाग में महर्षि भरद्वाज का आश्रम आज भी विद्यमान है। अयोध्या से वन जाते समय सीता और लक्ष्मण सहित भगवान श्रीराम महर्षि भरद्वाज के इसी आश्रम में एक रात ठहरे थे। महाभारत कालीन प्रसिद्ध धनुर्धर और कौरव-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के ही पुत्र थे यानी बृहस्पति के पौत्र थे।
देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच को भी पुराणों में विशेष उल्लेख मिलता है। युद्ध में मारे गए देवताओं को जीवित करने वाली संजीवनी विद्या सीखने के लिए कच दैत्यगुरु शुक्राचार्य के यहां ब्रह्मचारी के वेश में रहे और अपने संयम आचरण से शुक्राचार्य का दिल जीतकर संजीवनी विद्या प्राप्त करके देवताओं का कार्य सिद्ध किया। बृहस्पति ने प्रभास क्षेत्र में जाकर भूतभावन महादेव शंकर की कठोर तपस्या की थी। उनके कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें देवगुरु बनने का वर दिया। देवगुरु बृहस्पति का आह्वान किए बिना कोई भी यज्ञ संपन्न नहीं होता। श्रुतियों ने उन्हें सूर्य एवं चंद्रमा का नियंता बताया है। समस्त ग्रहों में ये सर्वश्रेष्ठ और शुभप्रद माने जाते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बृहस्पति एक राशि पर एक वर्ष रहते हैं किंतु वक्र गति होने पर निर्धारित समय में अंतर आ जाता है। ये धनु और मीन राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा सोलह वर्ष की होती है। इनकी शांति के लिए बृहस्पतिवार को व्रत करना चाहिए तथा पुखराज रत्न पहनना चाहिए। मंत्र-जप और ब्राह्मणों को पीला वस्त्रान्न आदि दान करने से भी देवगुरु अत्यंत प्रसन्न होते हैं। बृहस्पति संहिता' देवगुरु बृहस्पति के उपदेशों का संग्रह है। कुछ आचार्यों का मत है कि असुरों को यज्ञ, ज्ञान, तप आदि से च्युत करके शक्तिहीन बनाने के लिए चार्वाक मत का उपदेश देवगुरु बृहस्पति ने ही किया था।
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