धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
|
0 |
’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
यज्ञ
यह बात है स्वयंभुव मन्वंतर की। स्वयंभुव मनु की निष्पापा पत्नी शतरूपा के गर्भ से महाभागा आकूति का जन्म हुआ। वे रुचि प्रजापति की पत्नी हुईं। उन्हीं आकूति की कुक्षि से धरणी पर धर्म का प्रचार करने के लिए आदिपुरुष श्री भगवान अवतरित हुए। उनकी ख्याति 'यज्ञ' नाम से हुई। इन्हीं परम प्रभु ने यज्ञ का प्रवर्तन किया और इन्हीं के नाम से यह प्रचलित हुआ। उनसे देवताओं की शक्ति बढ़ी और देवताओं की शक्ति से सारी सृष्टि शक्तिशालिनी हुई।
परम धर्मात्मा मनु की धीरे-धीरे सांसारिक विषय-भोगों से अरुचि हो गई। संसार से विरक्त हो जाने के कारण उन्होंने राज्य त्याग दिया और अपनी महिमामयी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिए वन में चले गए। वे पवित्र सुनंदा नदी के तट पर एक पैर पर खड़े होकर उपनिषद स्वरूप श्रुति का जप करने लगे। वे तपस्या करते हुए प्रतिदिन श्री भगवान की स्तुति करते थे।
इस प्रकार स्तुति एवं जप करते हुए उन्होंने सौ वर्ष तक अत्यंत कठोर तपश्चरण किया। एकाग्रचित्त से इस मंत्रमय उपनिषद स्वरूप श्रुति का पाठ करते-करते उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं रही। उस समय वहां अत्यंत क्षुधार्त असुरों एवं राक्षसों का समुदाय एकत्र हो गया। वे ध्यानमग्न परम तपस्वी मनु और सतरूपा को खाने के लिए दौड़े।
सर्वांतर्यामी आकूति-नंदन भगवान यज्ञ अपने याम नामक पुत्रों के साथ तुरंत वहां पहुंच गए। राक्षसों से भयानक संग्राम हुआ। अंतत: राक्षस पराजित हुए। काल के गाल में जाने से बचे असुर और राक्षस अपने प्राण बचाकर भागे।
भगवान यज्ञ के पौरुष एवं प्रभाव को देखकर देवताओं की प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने भगवान से देवेंद्र-पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। देव समुदाय की तुष्टि के लिए भगवान इंद्रासन पर विराजित हुए। इस प्रकार श्री भगवान ने इंद्र पद पालन का आदर्श उपस्थित किया।
भगवान यज्ञ को उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र प्राप्त हुए थे। वही स्वयंभुव मन्वंतर में 'याम' नामक बारह देवता कहलाए।
|