धर्म एवं दर्शन >> हमारे पूज्य देवी-देवता हमारे पूज्य देवी-देवतास्वामी अवधेशानन्द गिरि
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’देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के सभी को देता है, उसे भी ’देवता’ कहा जाता है...
अर्द्धनारीश्वर
भगवान शिव का अर्द्धनारीश्वर रूप परम परात्पर जगत्पिता और दयामयी जगन्माता के आदि संबंधभाव का द्योतक है। सृष्टि के समय परम पुरुष अपने ही अद्भुग से प्रकृति को निकालकर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप है। ईश्वर का सत्स्वरूप उनका मातृस्वरूप और चित्स्वरूप है। उनका तीसरा स्वरूप वह है जिसमें मातृभाव और पितृभाव-दोनों का ही सामंजस्य हो जाता है, वही शिव एवं शक्ति का संयुक्त रूप अर्द्धनारीश्वर है। सत्-चित् दो रूपों के साथ-साथ तीसरे आनंदरूप के दर्शन अर्द्धनारीश्वर रूप में ही होते हैं, जिसे शिव का सर्वोत्तम रूप कहा जा सकता है।
सत्, चित् और आनंद-ईश्वर के इन तीन रूपों में आनंदरूप अर्थात साम्यावस्था या अक्षुब्ध भाव भगवान शिव का है। मनुष्य भी ईश्वर के उसी अंश से उत्पन्न हुआ है, अतः उसके अंदर भी ये तीनों रूप पूर्णतया विद्यमान हैं। इसमें से स्थूल शरीर उसका संदेश है तथा बाह्य चेतना चिदंश है। जब ये दोनों मिलकर परमात्मा के स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि कराते हैं, तब उसके आनंदांश की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार मनुष्य में भी सत्-चित् की प्रतिष्ठा से आनंद की उत्पत्ति होती है।
स्त्री और पुरुष-दोनों ईश्वर की प्रतिकृति हैं। स्त्री उनको सद्रूप है और पुरुष चिद्रूप है। परंतु आनंद के दर्शन तब होते हैं, जब ये दोनों मिलकर पूर्ण रूप से एक हो जाते हैं। वस्तुतः शिव गृहस्थों के ईश्वर हैं, विवाहित दंपति के उपास्य देव हैं। शिव स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं, इसीलिए विवाहित स्त्रियां श्री शिव की पूजा करती हैं।
पुराणों के अनुसार लोकपितामह ब्रह्मा ने पहले मानसिक सृष्टि उत्पन्न की थी। उन्होंने सनक-सनंदनादि अपने मानस-पुत्रों का सृजन इस इच्छा से किया था कि ये मानसी सृष्टि को ही बढ़ाएं, परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। उनके मानस-पुत्रों में प्रजा की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती थी। अपनी मानसी सृष्टि की वृद्धि न होते देखकर ब्रह्मा जी भगवान त्र्यंबक सदाशिव और उनकी परम शक्ति का हृदय से चिंतन करते हुए महान तपस्या में संलग्न हो गए। उनकी इस तपस्या से भगवान महादेव शीघ्र ही प्रसन्न हो गए और अपने अनिर्वचनीय अंश से अर्द्धनारीश्वर मूर्ति धारण कर वे ब्रह्मा जी के पास गए।
ब्रह्मा जी ने भगवान सदाशिव को अर्द्धनारीश्वर रूप में देखकर विनीत भाव से उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। इस पर महादेव ने प्रसन्न होकर कहा, "हे ब्रह्मन् ! आपने प्रजाजनों की वृद्धि के लिए तपस्या की है, आपकी इस तपस्या से मैं संतुष्ट हूं और आपको अभीष्ट वर देता हूं।"
यह कहकर उन देवाधिदेव ने अपने वाम भाग से अपनी शक्ति भगवती रुद्राणी को प्रकट किया। उन्हें अपने समक्ष देखकर ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और कहा, ''हे सर्वजगन्मयि देवि! मेरी मानसिक सृष्टि से उत्पन्न देवता आदि सभी प्राणी बारंबार सृष्टि करने पर भी नहीं बढ़ रहे हैं। मैथुनी सृष्टि हेतु नारीकुल की सृष्टि करने की मुझमें शक्ति नहीं है, अतः हे देवि! अपने एक अंश से इस चराचर जगत की वृद्धि हेतु आप मेरे पुत्र दक्ष की कन्या बन जाएं।''
ब्रह्मा जी द्वारा इस प्रकार याचना किए जाने पर देवी रुद्राणी ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान एक कांतिमयी शक्ति उत्पन्न की। वही शक्ति भगवान शिव की आज्ञा से दक्ष की पुत्री हो गई और देवी रुद्राणी पुनः महादेव जी के शरीर में ही प्रविष्ट हो गईं।
इस प्रकार भगवान सदाशिव के अर्द्धनारीश्वर रूप से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। उनका अर्द्धनारीश्वर रूप यह संदेश देता है कि समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त नारियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं। उन्हीं। भगवान अर्द्धनारीश्वर से यह संपूर्ण चराचर जगत व्याप्त है।
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