नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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अपनी इन बेशर्म आंखों के साथ अब कहीं खड़ा रहा जा सकता हैं?
लतू झट से मुड़कर खड़ी हो गई और चलना शुरू कर दिया।
उसे उस तरह चलते देख प्रवास जरी घबरा गया। इतना कुछ हो जाएगा, ऐसा नहीं सोचा था।
वह सागर का भैया है, सागर से उम्र में बड़ा, इसलिए अभिभावक की भूमिका अदा करना उसके लिए उचित है, इसी किस्म का एक मनोभाव ले, जबरन गंभीरता ओढ़ उस बातूनी लड़की को जरा 'टाइट' करना चाहता था। उसकी धारणा थी, अपनी गलती के लिए वह तड़पेगी और अगर कुछ उत्तर देगी तो प्रवाल जरी और शासन का सुख जी लेगा।
प्रवाल अब बच्चा नहीं है, वह इक्कीस साल का हो गया है।...बीच-बीच में नानी-मां के पास बैठ उस लड़की को बड़बड़ाते देखता है, प्रवाल को भी प्रवाल दो संबोधित कर बातें करने आती है। पर हां, प्रवाल उसे शह नहीं देता।
जान-सुनकर ही उपेक्षा का भाव दर्शाता है। वह जो उस दिन एकाएक बीच रास्ते में बोल उठी, “चिनु बुआ घर में हैं?"
चिनु बुआ घर है या नहीं, घर जाकर ही यह देख आओ। सो तो करेगी नहीं, जबरन बातें करना शुरू कर देगी।
प्रवाल यदि उस वक्त जरा ठिकाने से उत्तर दे तो अवश्य ही बातचीत का सिलसिला आगे खींचकर ले जाएगी।
यही वजह है कि प्रवाल ने गम्भीरता के साथ कहा, “मालूम नहीं।”
पहले ही दिन उस पर गुस्सा आ गया था प्रवाल को।
"चिनु बुआ, तुम्हारे दोनों लड़कों के नाम कितने सुन्दर हैं ! प्रवाल और सागर। कभी इस तरह के अच्छे नाम नहीं सुने थे। तुम्हें यदि एक लड़की होती तो क्या नाम रखती? सीपी?"
चिनु बुआ के लड़कों के नाम से तुझे कौन-सा वास्ता है? इन नामों को अर्थ समझती है? प्रवाल उसे शह नहीं देता, हेय दृष्टि से देखता है, आने-जाने के दौरान यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं था। आज एकाएक इतनी बेइज्जती का सामना करना पड़ा।
अपनी ओर से चाहे जितनी ही युक्ति क्यों ने प्रस्तुत करे मगर प्रवाल ज़रा हतप्रभ-सा हो गया। इसलिए और भी युक्तियां बटोरने लगा। सो चाहे जो हो, जरा टाइट करना बेहतर था। गांव की लड़की होने के बावजूद तुम इतनी दुःसाहसी क्यों हो?
और सरकार भवन की लतिका नामक उस लड़की की क्या हालत है?
उसके सिर में बेहद दर्द है। ऐसे में वह तकिये से सिर दबाए लेटी नहीं रहेगी?
उसकी बुआ ने अनुनय-विनय कर थोड़ा-सा दूध पिलाया। जेठानी होंठ बिचकाकर ताना मारती हुई बोली, "ननद जी ने ही इस लड़की को दुलार से बिगाड़ दिया है।”
लतू के बाप ने लतू को अपने पास ले जाने की बहुत बार कोशिश की है, बुआ ने ही नहीं जाने दिया है। कहा था, "मां के मरते ही बाप पराया हो जाता है। लड़की को ले जाने का मकसद है, क्या तेरे छोटे-छोटे बच्चों का सेवा-जतन करना। नयी बहू तो दर्जन-भर जन चुकी है।"
बाप ने झुंझलाकर कहा था, "यहां ही कौन-सा फर्क है? सौतेली मां परायी है और चाची अपनी?"
बुआ ने कहा, “अपनी नहीं है, यही गनीमत है। यह तो जानती है कि चाची की गृहस्थी में चाची है और अपनी आंखों से जब देखेगी बाप की गृहस्थी में एक दूसरी ही औरत मालकिन है, बाप हाथ जोड़े खड़ा है तो उसे बरदाश्त करना मुश्किल होगा। इस लड़की को ससुराल भेजने के बाद ही मैं मरूंगी।”
सो यदि चाची कहती है, "ननद जी ने ही दुलार से लड़की को बिगाड़ दिया है तो गलत नहीं कहती है।
लेकिन वह लड़की दूसरे को भविष्य बिगाड़ेगी, यह अच्छी बात नहीं है।...बहुतों ने यह सवाल किया है।
टार्च पॉकेट में रख बाहर के दरवाजे की सांकल चढ़ा रहे थे। विनयेन्द्र नाथ, तभी गगन के घर के निकट की गली में प्रकाश की एक रेखा दिखाई पड़ी।
धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही है।
जरा निराश भरे स्वर में अपने आप बोल पड़े, “यह भी एक पगली ही है !"
प्रकाश निकट चला आया।
उसके साथ धपधप बिना किनारों की सफेद साड़ी में एक अवयव। पटेश्वरी की तरह इस तरह की सफेद, बगैर किनारी की साड़ी फुलझांटी की कोई भी विधवा औरत पहने नहीं रहती है।
पटेश्वरी के एक हाथ में लालटेन और दूसरे में टिफिन कैरियर है। यह सवेरे के टिफिन कैरियर से कुछ छोटा है।
विनयेन्द्र सांकल न लगा, दरवाजे को भेड़, लपककर आए और बोले, "फिर तू मरने आयी? सवेरे मैंने क्या कहा था?"
पटेश्वरी हाथ की दोनों चीज़ नीचे रख, कोने के कमरे से विनयेन्द्र, की 'डिनर टेबल', यानी मेले में खरीदी हुई लकड़ी की चौकोर तिपाई खींचकर ले आयी और बीच में रखते हुए कहती है, "जब गठिया के कारण खाट पर लेटे रहना पड़ेगा, उस समय नहीं आऊंगी।'अब भी जब पैदल चलकर सब कुछ कर लेती हूं तो ऐसे में इतना-सा चलूंगी तो मर नहीं जाऊंगी।”
"अरे बाबा, मैं ही जरा-सी चलकर जाऊंगा तो क्या घिस जाऊंगा।"
पटेश्वरी टेबल पर थाल रख टिफिन की डिबिया से खाना निकाल परोसते हुए बोली, "लेकर आने से मैं भी घिस नहीं जाऊंगी।"
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