नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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क्या पा रहे हो तुम !
यह कैसी बात है !
सागर व्याकुल होने के बावजूद टूटी आवाज में कहता है, "मैं ! मैं तो कुछ..."
"तुमने कुछ नहीं किया है, यही न?”
इस गंभीर माहौल के बीच विनयेन्द्र की हा-हा कर हंस पड़ने की आवाज बेमानी जैसी लगती है।
हंसी रोक एकाएक गंभीर होकर कहते हैं, "ऐसी बात नहीं कि तुम कुछ नहीं कर सकते। मन में इच्छा जगे तो तुम इम्तिहान के वक्त नकल करके पास कर सकते हो। यह तो तुम जैसे लोगों का एक तरह का पेशा ही है।"
विनयेन्द्र के चेहरे पर व्यंग्य की हंसी उभर आती है।
सागर इस कलंक को बरदाश्त नहीं कर पाता है। कहता है, "मैं कभी नकल नहीं करता।"
विनयेन्द्र हंस देते हैं, "जानता हूं, हां, जानता हूं। यह बात समझ गया हूं। यही वजह है कि तुम्हारे सामने यह सब कहने को बैठा हूं। और इसलिए कि तुम यदि इस सड़ी-गली धरती को फिर से स्वस्थ बना सको। मुझे क्या लगता है, जानते हो, हम लोगों के इस समाज को कैसर ने धर दबाया है। नस-नस में जड़ फैलाकर वह विकृति फैला रहा है। निर्ममता से ऑपरेशन की छुरी चलाने से तब कहीं यदि लेकिन चलाएगा कौन? सभी के अन्दर रोग के बीज हैं !...
शाम होने-होने को है, घर से बहुत दूर चले आए हैं वे लोग। विनयेन्द्र उठकर खड़े हो जाते हैं, कहते हैं, “चलो, लौट जाएं।"
सागर चुपचाप उठकर उनके साथ चलने लगता है। सागर के मन में न जाने किस चीज़ का एक भार टलमलाने लगता है। यह क्या अभी-अभी जगी हुई चेतना का भार है?
लेकिन यह सब बात क्या सागर ने पहली बार ही सुनी है? जब से होश संभाला है, सुनता आ रहा है। सागर का सगो चाचा ही लेक्चर झाड़ता है। इस राष्ट्र के बारह बज गए हैं। इसकी हड्डियों और शिराओं में कैंसर नहीं होगा? आज के जमाने में माता की कोख से पैदा होते ही बच्चे देखते हैं कि चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वह जहरीली हवा नथुने में समा नहीं रही है क्या? जहर का बोझा ही बटोर रहे हैं।”
सागर ने अवाक् होकर सुना था।
लेकिन चाचा के चले जाते ही बाबूजी कहते, "आंखों में धूल झोंकने की कोशिश नहीं कीजिए, जनाब। लोगों के लिए जानना कुछ बाकी नहीं रह गया है। जोधपुर के पार्क में जमीन खरीदने की अपनी बात चाहे जितना ही दबाकर क्यों न रखो, मुझे पता चल गया है।"
सागर इन बातों का अर्थ पहले समझ नहीं पाता था। अब भी विश्वास-अविश्वास के उजाले-अंधेरे में काका अब पहले जैसा अपना आदमी नहीं लगता है।
स्कूल छात्र-यूनियन का सेक्रेटरी अनिल विश्वास भी यहीं कहता है।
और भी अधिक तीखे और कड़े शब्दों में।
कहता हैं, "इस सड़े-गले समाज को तोड़-फोड़कर नया समाज गढ़ना होगा। आदमी के मन में शुभ बुद्धि का घृत-प्रदीप जलाकर नहीं, रामधुन गाकर नहीं, साम्यवाद के नारे लगाकर नहीं, बल्कि बेंत मार-मारकर देह का चमड़ा उधेड़कर। नेहरू ने कहा था, "लैप-पोस्ट में बांधकर बेंत से मारेंगे। जो कहा था, किया नहीं, लेकिन हम लोग करेंगे। जहां जितने भी चोर-बाजारिए, काला-बाजारिए हैं, जितने पाखंडी बाबा-महात्मा हैं, जितने भी छद्म वेशधारी समाजसेवी और मनुष्य के तथाकथित हमदर्द हैं, उनके मुखौटे उतार, लैपपोस्ट में बांध सिर्फ चाबुक ही लगाना चाहिए। कानून के द्वारा कुछ नहीं होगा। जो रक्षक है, वही भक्षक भी है। काम सिर्फ चाबुक से ही बनेगा।"
बोलते-बोलते अनिल विश्वास का चेहरा कठोर-कुत्सित हो जाता है, अनिल विश्वास के मुखड़े की पेशियां तन जाती हैं और उसकी हर लकीर में सख्त नफरत की लपट दहकने लगती है।
अनिल विश्वास के चेहरे पर कभी सागर ने इस तरह की पीड़ा को भाव नहीं देखा था।
विनयेन्द्र चलते-चलते उसी तरह आत्मलीन भाव से कहते हैं, "सोचने पर अपार विस्मय होता है कि आकाश का यह उदार अपार महिमामय सौन्दर्य, जो हर क्षण रूप और रंग बदलकर मन को उपलब्धि के एक अनिर्वचीय लोक में पहुंचा देता है, इस पर कभी आंखें क्यों नहीं जातीं? उन लोगों को एक बार भी स्मरण नहीं आता कि यहां हम मानव प्राणी कितने क्षुद्र, कितने नगण्य और कितने क्षणिक हैं।...यही वजह है कि मैं चिरकालीन हूं, यह पूरी धरती रसातल में चली जाए, मैं अमर अविनश्वर हूं-इसी खुशी में मगन हो लोग-बाग बच्चों के खाद्य-पदार्थ में मिलावट करते हैं, मरीजों की दवा में मिलावट करते हैं और अबोध व्यक्तियों को हथियार बनाने के ख़याल से उनकी आत्मा को खरीद, उनके माध्यम से मिलावट का कारोबार चलाते हैं।...ख़न का यह बेरोक-टोक व्यापार चलता आ रहा है, चल रहा है। और मजे की बात है, इस देश में बड़े-बड़े विद्वान हैं, चिन्तक हैं, समाज मनोवैज्ञानिक हैं! ये लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। कितने आत्मघातक पथ का चुनाव किया है हमने! कला-साहित्य और आदमी के अन्दर के जानवर को लेकर हम पागलपन के खेल में तल्लीन हो गए हैं। ''लक्ष्य क्या है? ताकत और पैसा। दुष्प्रवृत्ति को बरकरार रखने का ईंधन।"
सागर को लगता है, यह आदमी जैसे कहीं खो गया है। सागर भी क्या खो जाएगा?
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