नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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सागर कहता है, “उस दिन तुम एक पेड़ की साख लेकर कहां जा रही थी, लतू?"
"न, तू मुझे दीदी नहीं कह सका। पेड़ की साख लेकर कहां जाऊंगी? कब की बात है, रे?"
"वही उस दिन, जिस दिन कालीबाड़ी ले गई थीं, उसके दूसरे दिन !"
“उसके बाद वाले दिन। ओ-ओ-ओ' ''क्या बताऊ, बुआ धूमधाम से शिव की कोई पूजा करना चाहती थी, एक सौ आठ चक्राकार तीन पत्ते वाले बेल के पले चाहिए, कौन खोज-ढूंढ़कर लाएगा? गगन से एक डाल कटवाकर...''
"गगन? गगन कौन है?”
“तुम लोगों के मामा का ही कोई गोतिया। इस फूलझांटी में तो तुम्हीं ब्राह्मणों की साख-दर-साख फैली हुई है। हमीं लोग अभागे कायस्थ हैं..."
सागर संकुचित होकर कहता है, “तुम लोग ब्राह्मण नहीं हो?"
"लो, इस बुद्ध की बात सुनो। हम लोग सरकार हैं।”
"सरकार ब्राह्मण नहीं होते क्या?"
"उफ़, तेरे बारे में क्या धारणा बनाऊ, सागर? तेरी बातचीत सुनकर लगता है, अभी-अभी तू इस धरती पर आया है। हां, तुझे क्यों याद आया कि मैं पेड़ की डाल कंधे पर लिये जा रही थी?"
''यू ही।"
"देख न, हठधर्मी का नतीजा भी भुगतना पड़ा था।” लतू अपना हाथ उठाकर दिखाती है, “बेल के कांटे चुभने से लहूलुहान हो गई थी।"
लतू अपना दाहिना हाथ सागर के सामने फैलाती है।
लतू के गोरे, सुडौल, पुष्ट हाथों पर कांटों की चुभन देखना सचमुच ही कष्टकर हैं।
सागर कहता हैं, "इस्ल !"
“बुआ ने कसकर झिड़कियां सुनाई थीं।"
सागर को ख्वाहिश होती है कि उस हाथ को जरा अपने हाथ से सहला दे, पर साहस नहीं हो पाता है।
सागर आहिस्ता से कहता है, “तुम्हारा सिर दर्द से फट रहा था? तीन-चार दिनों तक?”
लतू एकाएक उदास हो जाती है, दूसरी ओर मुंह घुमाकर कहती है, "सिर-दर्द नहीं हुआ था, मुझे दुःख हुआ था, इसीलिए लेटे रहने की इच्छा हो रही थी।"
"दुःख?"
"हूं।"
सागर जरा गुमसुम रहने के बाद कहता है, "तुम्हारी बुआ ने डांटा था, इसीलिए?
"दुर् ! बुआ की डांट-फटकार मैं एक कान से सुनती हूं और दूसरे से निकाल देती हैं।”
"तो फिर?”
सागर सावधानी से लतू की ओर ताकता है।
“तूने ऐसा कांड किया उस दिन कि क्या कहूं ! इसीलिए तो मुझे इतना अपमान सहना पड़ा।...हालांकि मैं सोचते हुए गई थी कि मां काली से मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना करूंगी। सो तो हुआ नहीं, सब कुछ गड्डमड्ड हो गया। दर्शन तक नहीं कर सकी।"
सागर का सिर शर्म से झुक गया।
तो भी सागर के मन में लहरें पछाड़ खाती रहती हैं।
लतू की मनोकामना क्या थी? जिसे वह मां काली को जताने गई थी। लेकिन यह बात साहस बटोरकर क्या पूछी जा सकती है?
हालांकि बेवकूफ की नाईं इस नींबू के पेड़ के तले चुपचाप बैठे रहना भी अशांतिकारक है।
सागर कहता है, “उसके चलते तुम्हें अपमानं क्यों सहना पड़ा?"
"उसका कारण तो वही है। तुझे डरा दिया था इसलिए तेरे भैया ने मुझे जो भी मर्जी हुई, कहा।"
लतू की आंखों से आंसू लुढ़ककर गिर पड़े।
यह एक भयानक परीक्षा की घड़ी है।
जो लतू ही ही कर हंसती रहती है, उसकी आंखों में आंसू !
सागर उम्रदार आदमी नहीं है कि वैसे आदमी का साहस बटोर आंसू भरी आंखों वाली उस लड़की को अपने निकट खींचकर कहे, ‘ए लतू, रोओ मत–छि: !"
सागर बच्चा भी नहीं है कि बच्चे का साहस बटोर, उसका हाथ पकड़कर कहे, “तू दी, तुम क्यों रो रही हो?"
सागर की उम्र दो नावों पर पैर रखकर डगमगा रही है। यही कारण है कि वह अपने-आपको जी-जान से संयत करने की चेष्टा में बेचैन जैसा हो रहा है।
फिर भी सागर एक भयंकर दुःसाहस कर बैठा। वह लतू के कंधे का हौले से स्पर्श करते हुए बोला, "भैया की बात का बुरा मत मानना, भैया उसी तरह का निष्ठुर है।"
"तू तो अपने भैया की वकालत करेगा हीं। मैं अब कभी तुम लोगों के घर नहीं जाऊंगी।”
सागर कहता है, “हम लोग तो अब कई दिन बाद ही यहां से चले जाएंगे, भैया उसके पहले ही चला जाएगा।"
लतू चौंक पड़ती है।
कहती है, "उसके पहले ही चला जायेगा !"
लतू का चौंकना आवश्यकता से अधिक जैसा लगता है।
लतू कहती हैं, "पहले ही क्यों चला जाएगा?"
कब परीक्षा होगी पता नहीं चल रहा है, बाबूजी का चिट्ठी-पत्र नहीं आ रहा है।”
लतू झुंझलाकर कहती है, “चला जाएगा तो तुम लोग किसके साथ जाओगे?”
"हम लोग? मैं और मां? और किसके साथ जाएंगे? हम लोग क्या जा नहीं सकेंगे?"
लतू छलछलायी आंखें लिये हंस पड़ती है, “चिनु बुआ तो नंबरी डरपोक है। और तू ? ही-ही ! तू ऐसा लड़का है..."
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