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नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा

प्यार का चेहरा

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15403
आईएसबीएन :000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

3

सागर के जी में हो रहा था, अगर कोई उपाय होता तो चार अदद संदेश कागज में मोड़कर दादा के पास भेज देता।

शायद उसी तड़क-भड़कदार आयोजन करने के फलस्वरूप बाबूजी लड़के के मामले में माथापच्च नहीं कर रहे हैं।

माँ ने एक बार कहा था, "हायर सेकेंडरी का इम्तिहान देने के बाद ही सागर का यज्ञोपवीत-संस्कार कर देना अच्छा रहेगा। कॉलेज में दाखिला लेने के वक्त सिर पर बाल उग आएंगे।

बस, इतना ही।

उसके बाद ही फूलझाँटी आने का जिक्र छिड़ा। माँ बोली, "लड़के बड़े हो गए हैं, उन लोगों के साथ मैं जा नहीं सकती हूं? अब भी क्या उन्हें मच्छर घसीटकर ले जाएंगे?"

प्रवाल भी अभी बेकार बैठा हुआ है।

कब 'पार्ट टू' का इम्तिहान होगा, इस अनिश्चय की आशा में निराश होकर बैठा हुआ है।

“पढ़ाई की जो कुछ तैयारियां की थीं, भूलता जा रहा हूँ”-प्रवाल ने कहा था, "लेकिन किताबों को छूने तक की इच्छा नहीं हो रही है। अच्छा रहेगा कि माँ के मायके के गांव के मच्छर काटेंगे तो सब कुछ भूल जाऊंगा। लौटकर आने पर नये सिरे से पढ़ने की एनर्जी हासिल होगी।"

भैया ने ही हिम्मत बढ़ाई।

सागर से चार साल बड़ा है प्रवाल।

फूलझाँटी आते ही म सगे-संबंधियों के बीच खो गई। बड़े भाई का भी कोई अता-पता नहीं चलता। सागर को ही इस पुराने मकान की दूसरी मंजिल के कमरे में लाचार होकर रहना पड़ता है।

रेलगाड़ी से उतरने के दौरान सागर के पैर में मोच आ गई है।

सागर सुबह से दोपहर तक खिड़की पर मुंह टिकाये उस आदमी को देखता रहता है-ताड़ के पत्ते के हैं और गमबूट पहने आदमी को।

सुनने को मिला है, यह आदमी किसी समय एक आई० सी० एस० अफसर था। रिश्ते में मां का चाचा है वह।

ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।

सच, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता कि एक आई० सी० एस० इस प्रकार की हास्यप्रद वेशभूषा से सज्जित होकर खेत-खलिहान में काम कर सकता है।...मां की जबान से उनके इस चाचा के बारे में बहुत सारी बातें सुनी हैं सागर ने। मौका मिलते ही मायके के इर्दगिर्द के लोगों के बारे में बातें करना मां की एक किस्म की व्याधि है। उनके पैतृक वंश का जो भी जहां कहीं है या था, उन्होंने अपनी बातचीत के सूत्र से उससे परिचित करा दिया था।

सागर को लगता है, मां के पास जैसे एक कैमरा हो, मां उसी के द्वारा अपने उन तमाम सगे-संबंधियों का, जो जहां भी हैं और था, फोटो खींचकर मन के एलबम में चिपकाकर रखे हुए है।

मौका मिलते ही मां उस एलबम को खोल लड़कों को दिखाने बैठ जाती है।

उसके साथ ही उन बातों का जिक्र छेड़ देती है जो कि बहुत बार कह चुकी है।

मां के दादा अनायास ही दस मील रास्ता पैदल चल सकते हैं, यह बात मां हर रोज नये सिरे से सुनाने बैठ जाती है।

प्रवाल ध्यान लगाकर नहीं सुनता।

प्रवाल हंस-हंसकर कहता है, "यह कहानी और कितनी बार सुनाओगी, मां?"

सागर मां के मन को उस तरह चोट पहुंचाना नहीं चाहता।

सागर को लगता है, मां के मन में कहीं एक दबा हुआ दर्द है। यही वजह है कि सागर मां की बातें और कहानियां मन लगाकर सुनता है।

मां के आई० सी० एस० चाचा की कहानी सुन-सुनकर उस आदमी के सम्बन्ध में सागर एक दमकता रंगीन चित्र बनाकर रखे हुए था। बहुत बार सुन चुका है कि उस बड़े ओहदे और वेतन को बात को बात में छोड़ दिया था।...बोले, "झठ के साथ समझौता नहीं कर पाऊंगा।"

लड़कों से अपने मायके के लोगों के संबंध में बातचीत करने के दौरान सागर की मां लड़कों की उम्र या बोधशक्ति का ख़याल नहीं करतीं, जिक्र छिड़ते ही (खुद ही जिक्र करती हैं) उनके चेहरे पर एक प्रकार की चमक आ जाती है।  

उस आई० सी० एस० बी० एन० मुखर्जी के बारे में भी उसी तरह बताया है, "चाचाजो उन दिनों बांकुड़ा के जिलाधीश थे, कड़ी नीति के पाबन्द, अत्यन्त ही तेजस्वी पुरुष। अचानक उनके हाथ में एक मामला आया। एक घोटाले और भ्रष्टाचार का मामला। लाखों रुपये घोटाले का मामला। चाचाजी ने उसकी जड़ खोदकर देखा, इस घोटाले का गुरु है एक मंत्री का दामाद।

“और उसके मददगार हैं उस दामाद के ससुर मंत्री जी।...तब देश की स्वाधीनता को लंबा अरसा नहीं गुजरा था, शिशु राष्ट्र के नाम पर मनमानी का दौर चल रहा था। इसके अलावा जनता भी उस समय इतनी जागरूक नहीं थी। भ्रष्टाचार देख-देखकर उसे अनदेखा करने की अभ्यस्त नहीं हुई थी। नतीजतन इस सम्बन्ध में शोर-शराबा मच गया।

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