नारी विमर्श >> प्यार का चेहरा प्यार का चेहराआशापूर्णा देवी
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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....
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चिनु बुझे स्वर में कहती है, "आजकल पहले की नाईं बहू को सताने वाली सास नहीं होती।''
पटेश्वरी कहती हैं, "यह बात सुननी भी नहीं चाहिए, चिनु। सब ठीक-ठाक है। अभी तुम लोगों के जमाने में सीधे नहीं, उल्टे दाव से काटा जाता है।"
"बुआ, खफा मत होना।”
"अरे, दुत् मेरी बच्ची; मैं क्या जोर डाल रही हूं? सोचा, कहकर देखू, भगवान कब कौन-सी बात सुन लेते हैं, कोई ठीक नहीं। उस लड़की के लिए मन हाहाकार करता रहता है।...लो, मेरा एक दूल्हा आ गया। इसी को मन का कशिश कहते हैं। हम लोगों का एक ग्वाला था, वह कहा करता था, मन के खिंचाव से जोरू और पगहे की कशिश से गाय काबू में रहती है। तो क्या केल ही गोकुल छोड़ द्वारको जा रहा है?"
प्रवाल उत्तापहीन स्वर में कहता है, "मायने समझ में नहीं आया।"
"मायने समझ में नहीं आया? चिनु, तेरा विद्वान लड़का यह क्या कह रहा है? यह सब तुम लोगों की पाठ्य पुस्तकों में नहीं है? एक मालपुआ रख जाती हूं, खा लेना भैया। बुढिया समझे नफरत कर फेंक मत देना।"
विनयेन्द्र कहते हैं, "न कहना ही बेहतर रहता, पटाई।"
पटेश्वरी कहती हैं, “सोचा, चट से कह ही डालूं, चाहे जो हो। न होगा तो न हो, इससे मेरे सम्मान को धक्का नहीं लगेगा।”
"मृणमयी भाभी के कान में बात जाएगी तो असंतुष्ट हो सकती हैं।"
"होंगी तो दो कौर ज्यादा खाएंगी। पटेश्वरी किसी के संतोष या असंतोष की परवाह नहीं करती।"
विनयेन्द्र मजाक भरे लहजे में कहते हैं, “सात जनम मैं तो कभी ससुराल का सुख जी नहीं सकी। घोड़े को रास पहनाना तक नसीय नहीं हुआ।"
"लेकिन मायके में ही क्या रास खींचने का सवाल पैदा नहीं होता?"
लतू का चाचा बहन से कहता है, "तुम्हें कह ही क्या सकता हूं। दीदी, तुम्हारी हालत राजा धृतराष्ट्र की तरह है स्नेहांध। लेकिन भैया चूंकि यहां नहीं है, इसलिए कहना मेरा कर्तव्य है-लड़की की जरा रास खींचो। लड़की अनवरत रास्ते में बेपरवाह घूमती-फिरती रहती है। लाइब्रेरी में फंक्शन होगा, इससे तुझे क्या लेना-देना है? चिनु का वह लड़का, जो लंबाई में मेरे ताऊ जैसा है, उससे इतना हेल-मेल क्यों?"
लतू की बुआ भी अपने भाई से दबने वाली नहीं है।
वे भी तेज आवाज में कहती हैं, "यदि तेरी आंखों में खटकता है तो मना क्यों नहीं करता?"
"मैं मना करने वाला कौन होता हूँ?”
"ओह ! बाप-चाचा शासन नहीं करेंगे और मुहल्ले के लोग आकर शासन करेंगे? लड़की बुरे रास्ते पर कदम रखेगी तो सरकार खानदान के मुंह पर ही कालिख लगेगी, मेरी ससुराल के लोगों के मुंह पर नहीं।”
"बुरे रास्ते पर कदम रखना ! रखना क्या बाकी ही है?”
चाचा तीखी आवाज में कहता है, यही तो देखा, खड्ड-डबरा पार करती हुई, कांटे का जंगल फलांगती हुई स्टेशन की तरफ कहीं
जा रही है। चिल्लाकर पूछा, कहां जा रही है? मगर राजकुमारी के कानों में बात पहुंची ही नहीं।"
बुआ भौंह सिकोड़कर कहती हैं, "स्टेशन जाने के लिए खडड्-डबरा लांघने क्यों जाएगी? पक्की सड़क ने कौन-सा दोष किया है?”
"खुदा जाने !"
“इसका मतलब स्टेशन नहीं जा रही है। अपनी सहेली मोटूसी के पास जा रही हैं।"
“साग-पात से मछली ढंककर तुम उस लड़की का इहलोक-परलोक बिगाड़ रही हो, दीदी।”
यह कहकर चाचा दनदनाता हुआ चला जाता है।
हां, अभियोग सरासर मिथ्या नहीं है।
इसी तरह साग-पात से मछली ढंककर रखती ही आ रही है बुआ। फिर भी जब वे खुद सोचने बैठती हैं तो कहती हैं, "छाती पर हाथ रखकर कह सकती हूं कि वह कोई बुरा काम नहीं करेगी। यही वजह है कि मैं इतनी निश्चिन्त हूं।"
लेकिन जो काम करने की खातिर लतू ने खड्ड-डबरा लांघ शार्टकट रास्ता पकड़ा था, दुनिया की नजरों में वह कोई अच्छा काम नहीं था।
यह जो तुम पैदल चल, साइकिल रिक्शे को पीछे छोड़ स्टेशन पहुंचकर खड़ी हो मेरी बच्ची, यह क्या कोई शोभनीय कार्य है? तुम्हारा बाप या भाई रवाना हो रहा है कि तुम एक ही सांस में भागी-भागी वहां आ धमकी? और ट्रेन खुलने के बाद भी उदास आंखें फैलाए आकाश में फैलते धुएं के गुबार की तरफ ताकती रहीं।
हां, ताकती रही, ताकती रही।
और चूंकि ताकती रही इसलिए लंबाई में जो लड़का तुम्हारे चाचा के ताऊ जैसा है, उससे मुलाकात हो गई।
ट्रेन खुल जाने के बाद सागर भी कुछेक क्षण खड़ा रहा और जब मुड़कर देखा तो चौंक पड़ा।
"लतू, तुम यहां?”
"हुं। मेरी जान-पहचान का एक व्यक्ति कलकत्ता गया, इसीलिए...."
"लो, भैया भी तो इसी ट्रेन से गया।"
"हूं, देखा। साइकिल-रिक्शे पर चढ़कर आया। लेकिन तुझ पर नजर क्यों नहीं पड़ी?"
“भैया को खाने-पीने में देर हो जाएगी, यह सोचकर नानीजी ने मुझे टिकट कटाने के लिए पहले ही भेज दिया था।"
"तू यह काम कर सका..."
"एक टिकट भी कटाकर रख नहीं सकता हूं? तुम मुझे क्या सोचती हो, लतू?”
यह कहते ही सागर को उस दिन की बात को स्मरण हो आता है।
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