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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

19

यह घर था माधवी बोस का। चित्र के माफिक इस घर के परिवेश में जहां बनावटीपन का नामोनिशान भी ना था। वह भी साधारण जीवन जीयेगी और अतनू बोस को भी इसी रस से सराबोर कर देगी।

सुहागरात को मैंने माधवी से पूछा-''तुम्हें खाना बनाना आता है?'' वह भी आश्चर्य से देखती रह गई। सोचा होगा क्यों भावी पत्नी की कोई खोज-खबर ही नहीं ली? या यह भी सोच सकती है इस वक्त खाना बनाने की बात क्यों?-या यह भी सोच सकती है कितनी अजीब बात है-यह आदमी क्या इतना बूढ़ा हो गया है कि सुहागरात को और कुछ इसे कहना आया नहीं? देखने से तो इतना बूढ़ा नहीं लगता।

पता नहीं जो भी सोचा हो पर आश्चर्य में तो पड़ ही गई होगी। फिर संक्षेप में बोली-जानती हूं।

उसे छोटे से उत्तर से ही मुझ में उत्साह का उफान आ गया-बांगला खाना, जैसे-केले का झोल, नील बैगन की सब्जी आदि बनाना जानती है कि नहीं। इसका मतलब था मेरी स्मृति पर अभी भी कांचनगर के इन शब्दों की झंकार बज उठी। वह सब कुछ जानती थी। तब अंग्रेजी खाद्यानों की तालिका दी-''तब वह, बोली नहीं, जानती क्यों कि वह सब बनाने की जरूरत ही नहीं थी।''

मैं उसकी सरलता पर मोहित हो गया। उसने मिथ्या अहंकार दिखाने के लिए यह नहीं कहा कि जानती हूं यह जानकर मुझे खुशी हुई।

तब मैं हँस कर बोला-''तुम शायद सोच रही होगी माजरा क्या है, इस आदमी ने क्या खाना बनाने वाली नौकरानी से शादी की है। है या नहीं?''

माधवी ने भी मुस्कुराकर कहा-''शायद अपने घर के सदस्य के हाथ का बना खाना पसन्द करते हैं?

उसकी बुद्धि का नमूना देखकर मैं और भी मोहित हो गया।

उसने आप कहा वह भी मुझे अच्छा ही लगा। ठीक है धीरे-धीरे हिम्मत खुलनी चाहिए। उस घर की लड़की ने अगर शुरू से ही तुम कहना शुरू किया होता तो मुझे अच्छा नहीं लगता।

तभी तो उसके आप कहने पर आपत्ति नहीं की। हां, पसन्द करता हूं यह सोचना गलत होगा। कहना चाहिए इच्छा जागी थी। क्योंकि घर के किसी सदस्य के हाथ का बना खाना खाये ना जाने युग बीत गये-शायद प्रागैतिहासिक युग...।

मेरी नयी जीवनयात्रा की शुरूआत माधवीकुंज से हुई। में जिस प्रकार के जीवन की कामना करता आया था उसी शैली में अपना जीवन स्तर ले आया। उसमें वर्तमान युग के साथ तायाजी के युग का सार मिला दिया।

माधवी अपने हाथों से देशी खाना बनाती। वह सुस्वाद खाद्य अपने हाथ से परोस कर बड़े से चांदी के थाल में लेकर आती। हां, जमीन पर आसन बिछाकर खाने का शौक पूरा ना कर मेज पर ही खाता था।

अपने वर्तमान जीवन का नाम माधवीकुंज दिया पर उसमें माधवी रजनी का सपना साकार होता दिखाई ना देता। चन्द की लकड़ी के बक्से में जो चित्र था वह मेरे सपनों को घेरे रहता और मेरे कामना-वासना को छोटे हाथों के तमाचे से हटाता।

दूसरी ओर माधवी। रात का सपना भी तो माधवी के अन्दर भी ना था। वह तो एक गृहस्थी पाकर ही धन्य हो गई थी।

मेरा भी यही हाल था।

हम लोग ऐसे रहते जैसे दीर्घ काल से विवाहित पति-पत्नी वास कर रहे हों। जहां हमारा दिन वाला भाग ही महत्वपूर्ण था, रात्रि गौण।

रात क्या बिल्कुल नहीं थी। दाम्पत्य जीवन का एक कर्त्तव्य भी तो है। उसका पालन बिना किसी आवेग या आस्वाद से किया जाता। माधवी भी इससे अधिक नहीं चाहती। उसके प्रति मैं कृतज्ञ था, वह प्रभा की तरह नहीं थी यही अच्छी बात थी।

सुबह ना जाने कब उठ जाती पता नहीं। कभी पता ना चलता। मैं अपने हिसाब से उठता। मुंह धोता, दाढ़ी बनाता, पेपर पढ़ता।

पेपर अपने शौकीन सोफे पर नहीं बल्कि बगीचे के किनारे मोल बरामदे में बेंत की कुर्सी पर बैठकर। माधवी तब शायद स्नान करती। फूल तोड़ती, तुलसी को पानी देती, लक्ष्मी जी की पूजा करती। फिर मेरा नाश्ता लेकर आती। माधवी सफेद साड़ी के अलावा और किसी रंग की साड़ी नहीं पहनती थी। उसका कहना था काफी समय तक टीचर थी, उसी पोशाक की आदत पड़ गई है।

मुझे ये भी बुरा नहीं लगता था।

मेरी मां, ताई जी भी ऐसी ही थोड़ी रंगीन किनारी वाली साड़ी पहना करतीं थीं।

फिर रंग तो बहुत देखे-रंग की चकाचौंध, रंग से खुमारी-रंग से दहन-अब रंग में मेरी रुचि नहीं है।

यही शुचि, शुभ्र कितना पवित्र है। नाश्ता हाथ में लिये सफेद मूरत मुझे भाती। प्यार से पास वाली कुर्सी की ओर इशारा कर उसे बैठने को कहता। माधवी कभी-कभी बैठती। माधवी उस प्यार की भाषा को नहीं समझती। वह घर गृहस्थी के काम करने के लिए व्याकुल रहती। शायद बैठती थी तो मन उसका काम में लगा रहता। मेरे साथ बात करने में उसका मन ना रहता।

अजीब बात है। इसने तो पढ़ाई भी की थी, और स्कूल में अध्यापन भी किया। पर कभी उसको पेपर के पन्ने उलटते भी नहीं देखा। किताब तो दूर की बात थी।

गृहस्थी में जैसे उसे एक प्रकार का मोह लग गया था या नशा हो गया था। सुबह की सुनहरी धूप में बगीचे के बरामदे में बैठ कर पति के साथ प्यार भरी बातें करने से ज्यादा उसे छत पर मंगोड़ी देना अधिक भाता। शाम को गाड़ी से घूमने के बदले उसे अगले दिन की सब्जी काट कर रखने में अधिक आनन्द मिलता था।

मेरे पास बैठकर उसे जम्हाई आती, उधर नौकर महरी के साथ वह घण्टों गप-शप करती।

यह सब मैं पसन्द नहीं करता। जानने के बाद वह डर कर बोली-अब नहीं करूंगी। अगर वह यह जवाब देती कि बात करती हूं तो क्या यह लोग क्या इंसान नहीं हैं, तब मुझे ज्यादा खुशी मिलती।

''पर वह तो डर से यही कहती ठीक है अब ऐसा नहीं होगा।''

मैंने उसके भयभीत वाले रूप में निर्मला की परछाई खोजने की चेष्टा की तो मुझे निराशा हाथ लगी। मैंने इस गृहस्थी के प्रति समर्पित औरत के भीतर निर्मला का आविष्कार किया पर-ना यह तो वैसी ना थी। निर्मला सेवा-परायणा, विनीत, आज्ञाकारिणी थी। पर उसका मन हीनता से परे था। उसके भीतर लोभ ना था। वह प्यार की प्यासी नहीं थी बल्कि अपने प्यार से सबको पूर्ण कर सकती थी।

तब मैंने निर्मला को समझा नहीं। माधवीकुंज में सुख-शान्ति की सीमा भी अधिक ना थी। मेरे भाग्य में माधवीकुंज में सुख-शान्ति से रहने का सपना फलीफूत ना हो पाया। धीरे-धीरे मुझे माधवी का असल रूप नजर आने लगा था। वैसे तो उसका परिचय अध्यापिका के रूप में मिला था पर मुझे लग रहा था मैंने एक कंजूस दासी मार्का बूढ़ी से ब्याह किया है। माधवी नामक लड़की को फूलों जैसा सुन्दर होना चाहिए। यह तो कंजूस, लाज-लज्जा-विहीन औरत, जो रोजमर्रा के खर्चों से एक-एक पैसा बचाकर मुझसे छुपा कर बैंक में नया खाता खोल कर जमा करने लगी थी।

आप कभी सोच सकते हैं अतनू बोस की ब्याहता जो उसकी पूरी सम्पत्ति की हकदार है, उसको क्या आवश्यकता थी मुझसे छुपाकर बैंक में खाता खोलकर पैसा जमा करने की। इसका मतलब था अमीरी उसे रास नहीं आ रही थी।

हालांकि उसे पीली के हाथ खर्च और उसके घर खर्च के बारे में अन्दाजा ही नहीं था। और अगर जाने भी तब भी उसे विश्वास के धरातल पर रख कर सोचना उसके लिए असम्भव है।

उसने जो पैसा जमाया था (उसकी असावधानी से भेद खुला) जानकर मैं एक तीखी हँसी हँसा। और सोचा एकदिन उसे अपन बैंक का पास बुक और घर के किराये के चेकों का हिसाब उसे दिखाऊं-पर मुझे इतना सब करने की इच्छा ही नहीं हुई। उसकी कोशिश और पद्धति जिस प्रकार जाहिर होती गई कि वह पैसा बचा रही है, यह एक अजीब बात थी। क्योंकि मैं एक तो ज्यादा वक्त घर में रहता ही नहीं था दूसरा मैं इन सबसे उदासीन रहता था।

जब मेरी नजरों में यह सब आया तो मैं ना केवल विस्मित बल्कि जड़वत हो गया था।

माधवी व्यय संकुचन में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती थी। उसे व्यय संकुचन परियोजना का कर्यान्वत सर्वप्रथम दो नौकरों को निकाल कर किया। एक को नहीं निकाला क्योंकि वह मेरा खास था। उस पर अपनी उस्तादी ना दिखा पाई। दो दासियों का खाना भी बन्द करवा दिया। (हां, इस घर में पांच दास-दासी थे। जितना भी साधारण जीवन जीऊं पर यह मुझे आवश्यक लगे थे।)

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