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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

6

''मां का वक्तव्य था अन्यत्र उद्देश्य हो भी तो क्या पृथ्वी उस पर चलेगी या मानेगी?''

मैं उस दिन बड़ा ताज्जुब बन गया। मैं मां को सुखी सन्तुष्ट समझता था। क्योंकि मां को हमेशा ही गप्पबाजी के साथ-साथ मेहनत करते ही देखने में अभ्यस्त था।

हां, हमारे कुटुम्ब की यही कारीगरी थी। कई महरी, नौकर होने के अलावा दर्जनों औरतों को परिश्रम वाला कार्य सरवराह करना। मां को मैं इन दर्जनों में से कभी अलग ना कर पाया। तभी तो मां के उस सुखी-सन्तुष्ट चेहरे के प्रति मैं कृपादृष्टि ही रखता था। या घृणा करता था।

सोचता था मन-ही-मन कि मां के अन्दर क्या दिल नहीं है, जैसे निर्मला के बारे में सोचता था।

निर्मला ने तो मुझे धोखा दिया था। आज लगा कि मां से भी धोखा खाता आया था। हां, मां की हँसी भी बनावटी थी, मां सुखी नहीं है, असन्तुष्ट है। तभी तो कहा, ''परिवार के सब मुझे मानें या सबके लिए मैं महत्वपूर्ण हूं यह सोचना ही गलत है।''

मां कहने लगी, ''तब क्या अपनी तरह बनाना चाहता है। मेरी तरह?''

मां ने फिर शुरू किया, ''हां, तेरी तरह, किसी की परवाह नहीं करूंगी। किसी की तरफ नहीं देखूंगी, लोगों की बातों की परवाह न करूं, कभी किसी के मन...।

मैंने कहा, ''मैं ऐसा करता हूं क्या?''

मां हँसी। और बोली, ''करता नहीं असल में तुझसे पूछती हूं तुझे खबर किसने दी?''

मैं भी अवाक् हो गया, ''खबर। यानि कैसी खबर।?''

मां भी स्थिरता से बोल पड़ी, ''शादी का समाचार।''

शादी में सचमुच आसमान से गिर पड़ा। किसकी शादी।

''तेरी शादी।''

मेरी। मैं भी जबरन हँस पड़ा। ज्यादा जोर से हँसा। कहा, ''कैसी अद्मुत, अलौकिक, अभावनीय कल्पना किसके मस्तिष्क में आई?''

मां ने उसी प्रकार से कहा, ''जिसके दिमाग में आना चाहिए उनके ही दिमाग में आया है। कर्ताओं ने ठीक किया है, जल्दी ही तुम्हें खबर लेकर बुलवा भेजेंगे।''

कहा, ''अजीब! बिल्कुल जैसे कन्या भी ठीक है, मेरे मत का कोई भी महत्व ही नहीं है?''

मां, ''क्यों मना क्यों करेगा?''

कुछ नहीं? बिल्कुल सब जान गये हैं। ना जानने वाली कोई बात नहीं-मां ने चेहरे को दूसरी ओर घुमाकर कहा, ''गला भी शायद कांपने लगा, कहा, ''बहू को तुम प्यार तो नहीं करते थे कि उसके लिए बाकी जीवन संन्यास में ही बिता दोगे?''

मां की आखों में पानी आया तो मुझे आश्चर्य हुआ। फिर भी मैंने गले को अकम्पित तथा आंखें भी सूखी रख कर कहा, ''किसी के लिए नहीं-यह संसार मुझे अच्छा नहीं लगता।

रुक।

मां ने अचानक मुंह को सामने घुमाया तो मां की अश्रुभरी अंखियों में अग्नि की दहन ज्वाला दिखी। मां ने तिरस्कार भरे लहजे में मुझे लताड़ा। साधुपना तो तेरा छल है।

छल!

मैं भी जैसे जड़वत हो गया या बुद्धू बन गया। जिस मां की तरफ कभी सीधे देखा नहीं, कभी भी उन्हें मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा उन्हें अचानक जोरदार स्वर में बात करते देख मुझे बिजली का सा झटका लगा।

मां भी दृढ़ स्वर में बोली, मैं तेरी मां हूं मैं नहीं जानती अब मैं हँस सकता था। कठोर व्यंग्य की छलनी से मातृगरिमा का छेदन कर सकता था या अवहेलित दृष्टि से देखकर वहां से जा भी सकता था।

पर नहीं क्यों उसी वक्त सुबह की वह घटना मेरी नजरों में आकर ठहर गई।

किचन के पीछे उस कंडे की छोटी कोठरी के दरवाजे के सामने जिस दृश्य को देखा था पता नहीं फिर भी मुझे यही लगा शायद ऐसी किसी दृश्यावली से मेरे को सामना होना पड़ेगा।

अगर मैं तीखे व्यंग्यवाणों की बौछार करूं या अपना रौब दिखाऊं तो वह कठोर, क्रुर, भयंकर और भद्दा दृश्य किसी भी छत से झूल कर मुझे चिढ़ा देगा। तभी तो मैं बुद्धू बन गया, मां के इस नये रूप को निहारकर। मां को कहना था साधु का भेष त्यागो। शादी तो तुम्हें करनी ही है। वंश का नाम मिट्टी में मिलाकर तुम मनमानी नहीं कर सकते।

मां ने फिर से अपना चेहरा दूसरी ओर करके कहना शुरू किया, ''काफी खोज के बाद तुम्हारे लिए 'पद्यिनि' कन्या को बधुरूप में वरण किया था, तुमने उसकी महान्ता को ना समझ उसे ठुकराया, ठीक है, अब तुम्हारी पसन्द के अनुसार ही 'हस्तिनी' कन्या आ रही है उसे किसी ऐसी परिणति के लिए बाधित ना करना।''

मैं चुप कर के रह गया। कई आलतू-फालतू किताबें मैंने भी पढ़ डाली हैं, 'हस्तिनी', 'पद्यिनि' भी मैं जानता हूं पर मां भी इतना सब कुछ जानती है यह मेरी धारणा के बाहर की बात थी।

इसके अलावा-जिस मां ने कभी भी 'अपना बेटा' जैसा वाक्य कभी उच्चारण भी नहीं किया था और अपने जेठ या देवरों के बेटों से जरा भी मुझे प्राधान्य ना दे पाईं थीं, उन्होंने मुझे इतना पढ़ा रखा है यह तो जैसे मेरे लिए अद्भुत ही था।

मैं क्या हूं या मेरी चाहत क्या है इस सम्बन्ध में घर के मालिक भी अवगत थे। तभी तो उस जानकारी की वजह से मेरी परवाह ना कर कहां से 'हस्तिनी' कन्या ढूंढ लाये हैं।

मेरे अन्दर लज्जा का लेश ना था। घर सचमुच उस दिन मैं भी शर्म से जमीन में गाड़ा जा रहा था।

लगा मेरे सब आवरण खोल कर किसी ने उजाले में खड़ा कर दिया हो। कितने शर्म की बात थी। हाय लज्जा-कितना कलंकमय दृश्य था। उतनी लज्जा तो मुझे निर्मला के मृत्यु-दृश्य पर भी नहीं आई।

तय किया। मेरी बातें टेप कर रहे हैं? कुछ भी नहीं छोड़ियेगा। तय किया उनके घमण्ड का उचित जबाव, वह था-उनकी हस्तिनी योगवस्तु कन्या का अपमान कर वहां से निकलना, भाग जाना। उस कलकत्ते में नहीं बहुत दूर। पहाड़-पर्वत जहां भी दिखा देना पड़े अतीस बोस सर्वस्व त्याग कर साधु बन। सकता है।

यह दृढ़ संकल्प भी कर डाला। घर के सब लोगों के साथ मुलाकात करके ही रातोंरात भाग जाऊंगा। पिता जी मिले। उन्होंने तो शारीरिक कुशल पूछ-पाछ कर काम खत्म किया। चाचा लोगों ने सिर्फ कारोबार के बारे में बातचीत की। बड़े भाई अपने नये व्यवसाय के बारे में बताकर उल्लास का अनुभव कर रहे थे।

सिर्फ ताया जी सुत्रगम्भीर गले से बोले, ''अगले महीने की चार तारीख को तुम्हारा ब्याह का दिन है-जब आ ही गये हो तो इस बीच कलकत्ते से जाने की आवश्यकता नहीं। फिर थोड़ी देर हुक्का गडगड़ा कर बोले, ''पात्री तुम्हारी बड़ी भाभी की ममेरी बहन है। स्वास्थ्यवती, कुछ पढ़ना-लिखना जानती है। सब प्रकार तुम्हारे अनुरूप है।''

कह कर फिर से हुक्का पीने लगे। ''सर्व प्रकार मेरे अनुरूप वाक्य में क्या मेरी भर्त्सना थी, या मेरे प्रति धिक्कार, तभी मेरा दिल दहल गया, मुंह से वाक्य ना सरके। नहीं तो मैं अनायास ही कह सकता था। आप लोग तो स्वयं भी बना रहे हैं, स्वयं ही तोड़ रहे हैं। दिन तय करने से पहले मुझे एक बार भी बताना उचित ना था?'' कह ना पाया।

यद्यपि मेरी प्रकृति तो ऐसी ही थी जिसमें ऐसा कहना स्वाभाविक था।

लेकिन जो मेरी प्रकृति में था कुछ अप्रासंगिक बात कह डालना, मैंने कुछ और ही अप्रासंगिक प्रश्न किया,  ''उन्हें दूसरे विवाह में कोई ऐतराज तो नहीं है?'' कह कर ही जैसे घड़ों पानी गिर गया। पर ताया जी ने तो मखौल की हँसी नहीं छेड़ी बल्कि बड़े शान्त भाव से बोले, ''नहीं है, होता तो बात ही क्यों बढ़ाते।''

मैं कुछ पल बुद्धू की तरह खड़े होकर देखकर खिसक गया। बाद में ख्याल भी आया था सबसे बड़ी युक्ति मेरे अस्त्र रूप में थी। मैं उसी का ही प्रयोग ना कर सका। मैं ही तो इस बात पर बल दे सकता था कि अब मेरी इच्छा फिर से गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की नहीं रही, मैं दूसरे ही जीवन का वासी हो गया हूं।''

असल में यह वाला कौशल तो मैंने खो दिया था क्योंकि मेरा मन, देह सब प्रतीक्षा कर रहे थे। एक उद्दाम यौवन की जो आकर सर्वस्व अर्पित करे।

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