नई पुस्तकें >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
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पौली ने बाद में कई बार उस डॉक्टर की उस बात को याद करके मजाक किया और उसकी विलायती डिग्री की खिल्ली उड़ाई। मैं भी उस नवजात शिशु को अपनी प्रतिच्छवि समझ कर आनन्द से पागल हो गया तभी तो उस बात पर गौर नहीं किया था। फिर भी खट से उसकी हँसी कानों में बज रही थी, जब वह डॉक्टर का मजाक बना रही थी।
जाने भी दे उस बात को फिर भी पौली के साथ मेरा मतान्तर उस बच्ची को लेकर ही प्रारम्भ होने लगा।
पौली के लिए मातृत्व एक दुर्घटना मात्र था। वह उसके लिए महिमामय कुछ भी न था। उसके लिए वह अपने स्वाधीन, स्वच्छन्द जीवन यात्रा में बाधा नहीं डाल सकती थी।
बच्चे को आया के हाथ में सौंप कर निश्चिन्त हो गई। मुझे यह बुरा लगता था। मेरे मन में अतीत की सारी स्मृतियां हिलोरे लेतीं जो कांचनगर के मातृत्व से सम्बन्धित होतीं, माओं का शिशु के प्रति पूर्ण समर्पित जीवन जो उनके लिए ही जीती थीं। क्या मैं अतीन से अतनू बन कर भी कांचनगर के बोस परिवार का संस्कार अपने रक्त में बहन कर रहा था? शायद कोई इंसान जो सच में पुरुष है वह कभी अपने पूर्व संस्कार से मुक्त नहीं हो सकता। जब उम्र ढलती जाती है, खून में गर्मी कम होने लगती है-तब पूर्वजों का रक्त प्रबल जोर से ठाठें मारने लगता है।
जब मैं कहता-बच्चे को तेल लगाकर धूप में रखना चाहिए और बच्चे तो पहले मां से ही खाद्य ग्रहण करते हैं?
पौली ने अपने शैम्पू वाले छोटे बालों को झटका दिया, लिपिस्टिक लगे होंठों पर मुस्कान लाकर कहा-''तुम्हें क्या हो गया है? क्या पचास बरस पीछे वाले युग में चले गये हैं? वच्चों को तेल लगाकर धूप में-ही, बच्चों का स्तनपान-हाय लगता है किसी आदिवासी क्षेत्र के लोगों का जीवन वृत्तान्त सुन रही हूं।''
मैं स्वयं को आपे में रख लेता-''तुम इन सब बातों को हँसी में नहीं उड़ा सकतीं-इनमें भी अवश्य वैज्ञानिक अर्थ है।''
है जरूर है, पौली अपने सुनहरे छोटे बालों को लहरा कर (जिन्हें देखकर मैं मुग्ध हुआ था) हँस कर कहती- ''कमर में धागा, हाथ में लोहा, इन सबका मतलब तुम क्या निकालोगे?''
मैं शर्मा जाता और चुप हो जाता। मुझे पौली काफी आधुनिक लगती, मेरे से तो ज्यादा ही। तभी तो अपने को उससे घटिया माना करता।
श्रीमान पाइन भी तो उसी की तरफदारी करते। दादा, नाना तो हमेशा बच्चा देखकर खुश होते हैं यह तो पुरानी बात है, यह बूढ़ा तो उसकी ओर देखता तक ना था। आया अगर उसे पास लाती तो-कमरे में ले जाओ-कहता।
हां, एक बात कहना तो भूल ही गया। उस वक्त मैं काफी लम्बे समय तक ससुराल में रहा फिर मेरा मकान आमीर अली ऐविन्यू में बना। फिर सेन्ट्रल ऐविन्यू का वह चारमंजिला प्रासाद-जिसकी छत पर फुटबौल खेल सकते हैं।
पौली एक दिन चढ़कर बोली-सिर चकराता है, चक्कर खाकर छत से गिरी नहीं-पौली पौली तो।
वह तो बाद में।
पौली के साथ ही मैंने लम्बे समय तक विवाहित जीवन जीया। उसमें सब कुछ प्रबन्ध आ संभालने की अपरिसीमित क्षमता थी। किसी भी मुश्किल परिस्थितियों को या अपने दोष को वह बातों की चातुरी तथा हँसी के कौशल से सुधार लेती।
क्योंकि उसके अन्दर मानसम्मान का लेश नहीं था। सुविधा या लाभ की खातिर वह कुछ भी नहीं कर सकती थी।
पौली ने एक बार क्या पीड़ित या अनावृष्टि से पीड़ितों के लिए एक चैरिटी-शो का सुन्दर कार्यक्रम किया-जो उसकी समाज सेवा का एक अंग था। उसका खर्चा निकालने के लिए एक 'स्मारिका' भी प्रकाशित की।
उसके लिए विज्ञापन संग्रह करने के लिए पौली अकेले गाड़ी ड्राइव करके निकलती थी।
शायद अकेले जाने का यही उद्देश्य था। कोई भी उसकी गतिविधि या आवेदन पद्धति का गवाह ना रहे। पिता के बिजनेश के कारण उसके साथ कई शिल्पपतियों की जान-पहचान थी-मिस्टर पाइन का नाम सुन कर कइयों ने पहचाना-बारह-तेरह हजार रुपया उसने विज्ञापन से संग्रह किया था। पौली ने सफलता के गौरव से गौरवान्वित मुखमण्डल से कहा-देखा मेरा कमाल।
स्वीकार करना पड़ा उसकी दक्षता को। क्योंकि तब भी हमारा सम्बन्ध माधुर्य के पर्याय पर था करेले का कड़वापन उसमें नहीं आया था।
स्पष्ट शब्दों में साफ बात कह कर उसे गुस्सा नहीं दिलाना चाहता था।
मैं यह कह सकता था यह तो कमाल है तुम्हारी सुन्दर देहयष्टि का जिसे? तुम इतना आकर्षक बनाके निकलती हो उससे तो उन अमीर तोंद वाले लोगों का दिल धड़कने लगता होगा या पता नहीं वे सब हार्ट फेल करके मर गये हों?
पौली ने सज श्रृंगार की कला को अपना बांदी बना के रखा था। वह पांच-छह टुकड़े साड़ी, ब्लाउज पहन कर भी शरीर के उन अंगों को निरावरण। रख पाती, जिन्हे देखकर कोई भी फिदा हो सकता था।
मैंने एक बार यह भी कहा था-विज्ञापन संग्रह करने निकल रही हो या विज्ञापन देने जा रही हो?
इस बात से ना तो वह शर्माई ना क्रोधित हुई बल्कि चेहरे पर आत्मविश्वास की मुस्कान लाकर बोली-''ना देने से क्या कुछ पा सकते हैं। कुछ करने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है। कोई वस्तु बिना मूल्य बिकती है?''
पौली का यही हिसाब था-सीधा-साफ-दाम दो वस्तु लो।
लेकिन किस वस्तु का कितना मूल्य हो सकता है इस बात से वह नावाफिक थी। तभी तो विज्ञापन संग्रह अभियान में उसने अधिक मूल्य दे डाला। पौली जब बाहर निकलने लगी तो बेबी की आया ने प्रशंसा और खुशामद दोनों लहजों से पूछा-दीदी इस साड़ी का क्या दाम है?'' कितना मूल्य?
इसका मतलब उसके ऐख्तियार है या नहीं यही जानने की चेष्टा। क्योंकि वह भी कम नहीं है, अमीर घराने के बच्चे की आया, उसका मान, पैसा सबकुछ है। तनख्वाह तो जमता है। जमा करके क्या वह दीदी की तरह पतली नरम दामी साड़ी नहीं खरीद सकती?
पर उसकी कोशिश में पानी फिर गया। उसकी दीदी जी मुंह टेढ़ा करे हँसके बोलीं-खरीदोगी क्या पहनने से तुम खूब खिलेगा।''
मद्रासी आया की काली और मोटी बेढ़ंगी देहयष्टि पर उस झीनी साड़ी की कल्पना करना ही हास्यकर था।
अगर वह सुन्दर है तो उसका ढिढोरा पीटने की चेष्टा भी क्या कम हास्यप्रद नहीं।
जाने दे। जी जान लड़ाकर पौली ने उन्नीस हजार रुपये इकट्ठे किये। वह तो काफी बड़ा काम था। खर्चे का पन्द्रह हजार रख कर उसने बाकी चार हजार दुखियों को भेजे भी थे।
इस समाज-सेवा के फलस्वरूप कुछ भक्त बन गये जो उसके समाज के नशे थे। पहले पौली इस श्रेणी के लड़के,-लड़कियो के सम्पर्क में नहीं आई थी। पहले इन्हें वह नीची नजर से देखा करती थी। अब वे इस घर में आकर समादर से चाय पीते, बिस्कुट खाते और चानाचूर भी खाते। पौली उन लोगों को लेकर मग्न हो गई थी।
उधर बच्ची की दुख की सीमा नहीं थी, कहां मां, कहां बाप। उसका एकमात्र आसरा होता है उसकी आया। अब वह बड़ी हो रही थी। लोगों का साथ चाहिए था। मुझे दुख होता। मैं अपने हृदय का पितृस्नेह वाला प्यार देना चाहता पर मेरे पास वक्त कहां था?
एक दिन उससे अनुरोध किया। तो पौली मनोहरी हँसी से-मुझे ही वक्त कहां है?
वाह, तुम्हारा इतना क्या काम है? ''क्या मेरा कोई काम नहीं है, तुम क्या सोचते हो मैं पैरों पर पैर रख कर खाती हूं सोती हूं?''
''वह बात नहीं है, तुम उसकी मां हो तुम्हारी जिम्मेदारी है उसे पालने की अगर उसके बड़े होने के समय में उसका साथ ना दे सको...''
पौली ने मुंह को बिगाड़ कर कहा, अब रहने भी दो। दया करके पुराने जमाने की भावप्रवण कथामाला का जाप ना करो। तुम मेरा मत तो जानते हो, मां बनना एक दुर्घटना मात्र है मेरे लिए। कृत्रिम गौरव जो मातृत्व को मिलता है वह सिर्फ ढकोसला है-बनावट है जिससे बच्चे को मां मन लगाकर पाले।
मैंने जीवजगत के प्राणियों का वास्ता दिया। उनके समाज में शिशु पालन के लिए किसी कृत्रिम गौरव का प्रलेप नहीं है, तब भी मातृमहिला उनमें इन्सानों से किसी भी प्रकार कम नहीं पाई जाती।
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