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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15404
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...

18

तब लोगों के पास पैसा होता तो घूमने में कुछ भी परेशानी ना थी। आजकल की तरह इतने कायदे-कानून नहीं बने थे।

अतनू बोस भी गये। पासपोर्ट मिलने में देरी नहीं हुई। डेढ़ बरसों तक योरोप के मशहूर स्थलों पर घूमा।

पौली बोस की अदम्य वासना थी 'कैन्टीमेंट' टूर करने की पर वह ना जा पाई। उसकी तस्वीरें भी कलकत्ते में ही पड़ी रह गईं।

सिर्फ बेबी बोस एक छोटी छवि बन कर सर्वत्र घूमी। आकाश में उड़ी, पाताल में भी गई, पानी में विचरी, पहाड़ पर भी चढ़ी।

डेढ़ बरस बाद अतनू बोस तरोताजा होकर वापिस लौटा। मैं ही तो अतनू बोस हूं। मैं ही तो बोलता जा रहा हूं आप लोग टेप कर रहे हैं। मैंने ही यह सब किया था। धर्मावतार के दरबार में इन सबका न्याय होगा।

दूसरी तरफ का वकील कहेगा, देखिये धर्मावतार यह इंसान कितने गर्हित किस्म का है। इसका चरित्र कितना भयंकर है जिसने एक के बाद एक पत्नियों को...।

वाह इतनी सारी बीवियां सुनकर परेशान हो रहे है। पहले ही तो कहा था मैं आप लोगों को पांच पत्नियों के बारे में बताऊंगा फिर जूरी विचार करेगी मैं किस कदर पत्थर दिल हूं।

भ्रमणोपरान्त मैंने उन विशाल घरों से अपना डेरा शहरतली की तरफ नये छोटे फ्लैट में जमाया। छोटा-सा घर जैसे तस्वीरों को देखते हैं, सामने बगीचा, आस-पास पड़ौसी भी नहीं थे।

ना ही पुराने नौकर थे ना ही पुराना असबाब। नये जीवन की साधना में लग गया।

यहां आकर मैंने तय किया। एक बार और अग्निपरीक्षा में कूदा जाय। पुराने ख्याल त्याग कर नये ख्याल...।

इसी इरादे से एक 'बारासात' की लड़की से शादी की जो लड़की नहीं महिला ही कह सकते हैं। पर जिस घर से उसे लाया वहां महिला शब्द का प्रयोग होता है या नहीं पता नहीं।

उस लड़की ने कुछ पढ़ाई-लिखाई की थी। शायद खुद रोजगार करने की तागीद ने उसे पढ़ने पर मजबूर किया था। उनके घर में दुर्भिक्ष का जोर था।

उम्र शायद तीस से चालीस के भीतर। एक तरह का चेहरा होता है जिससे उम्र का पता नहीं लगता। बाईस भी हो सकता है, बयालीस भी। जो भी हो मेरा इससे क्या लेना-देना।

मेरे बड़ा बाजार के दफ्तर को छोकरा था उसकी ममेरी बहन थी। वह छोकरा एक दिन अपनी बहन के संघर्ष की कथा सुना रहा था। फ्री में स्कूल में पढ़ कर मैट्रिक पास कर प्राइवेट पढ़ कर उसने बारहवीं भी' पास कर डाला। साथ में एक फोटो भी था पात्र पक्ष को दिखाने के लिए नाम था माधवी घोष। मैंने परिहास कर कहा-''देखूं कैसी लड़की है-तुम्हारी ममेरी बहन...।''

उस छोकरे ने कृतार्थ हो फोटो दे दिया। कहा दीदी यानि थोड़ी बड़ी, बड़ी गरीब है। सोचा होगा शायद गरीब का कन्यादान बनाकर कुछ पैसे ऐंठ लेगा। पैसे के ऐंठने का ही उसने सोचा था...।

मैंने देख कर ही उसे लौटा दिया और कहा-''बिल्कुल ही बदसूरत-पर चौथे पति का इतना ना-नुक्स निकालना शोभा नहीं पाता-चाहे उसके बैंक में पैसा रहे या कलकत्ते में पांच-पांच घर हों तो भी...।''

वह छोकरा मेरी ओर आंखें फाड़ कर देखता रह गया-''क्या कह रहे हैं सर?''

''क्या कह रहा हूं मगज में आता नहीं-तुम सब पूरे-के-पूरे कोरे हो-क्या कुछ भी समझते नहीं-तुम लोगों को बात समझाने के लिए कुदाली से खोद-खोद कर बात को दिमाग में डालना पड़ेगा।''

तब भी वह लड़का अजीब-सी निगाह से पूछता रहा-''सर क्या कह रहे हैं? सच, मैं समझ नहीं पा रहा।''

अच्छा समझ नहीं रहे। मैं हँसने लगा-''तब तो मात्रा करके ही पढ़ाना पड़ेगा। सुनो तीन बरस पहले मेरी पत्नी एक विद्युत दुर्घटना से मर गई थी। सुना भी होगा। जो भी हो अब मैंने तय किया है एक बार और गृहस्थी करके देख ही लिया जाये। पैसे वाले बूढ़े के साथ बुद्धिमती लड़कियां जानबूझ कर शादी करना चाहती हैं। उन सब देशों में यही देख कर आया हूं। विदेशों में लड़का हो या लड़की शादी की कोई उम्र नहीं होती। जो भी हो-तुम्हारी ममेरी बहन का नाम माधवी है। आशा है कि काफी बुद्धिमान भी है-बूढ़ा समझ कर ब्याह के लिए ना करके अपना भविष्य खराब नहीं करेगी। तुम्हीं मध्यस्थता का भार लो। हां, तुम्हारे मामा अगर बूढ़े दामाद की ख्वाहिश रखें तभी।''

कुछ पल वह लड़का मुंह खोल कर मुझे देखता रह गया फिर अचानक मेरे पैरों पर गिरकर बोला-''सर क्या बताऊं आप बड़े हैं, आपको तो कुछ नहीं कह सकता अगर मजाक नहीं कर रहे तो-बताता हूं मामा क्यों पूरा कुनबा आपके पैरों तले पड़ा रहेगा-पर सर शायद आप मजाक कर रहे हैं?''

मैंने गुस्से का भान किया। गुस्से का अभिनय करते हुए कहा-बेकार में तुम्हारे मामा की जवान बेटी की शादी की बात पर मजाक क्यों करूंगा-गरीब घर की एक समझदार, व्यस्का लड़की से ब्याह करके मैं अब शान्तिपूर्वक रहना चाहता हूं।

क्या आप लोग भी सोच रहे हैं एक गरीब घर की काली-कलूटी लड़की को लेकरे मैं क्या करूंगा?

तब बताता हूं कान में चुपचाप, सुनिये, खूबसूरत से तो कई बार शादी करके देख लिया अब जरा जबान बदलने की इच्छा हो रही थी।

ज्यादा उम्र की गरीब घर की बड़ी ही साधारण-सी लड़की से ब्याह का सोच कर मुझे जोश आने लगा। माधवी के साथ ब्याह कर लिया। पौली के साथ कचहरी में रजिस्ट्री कर शादी की थी। यहां फिर से वही पहले वाला-पुरोहित, नाई-हां, सिर पर सेहरा करने को किसी ने जोर नहीं दिया। हाथ में सरौंता किसी ने पकड़ा दिया।

शुभदृष्टि के समय नाई ने रीति के अनुसार छन्द बांधा-अच्छे, बुरे लोग हट जाओ, अगर ना गये तो मेरी तरह-एक मुट्ठी चावल महीने खाना पड़ेगा।

मैं झूठ नहीं बोलूंगा मुझे यह सब समारोह अच्छा लग रहा था, जैसे कांचनगर के प्रांगड में फिर से आ गया-तब शादी का ऐसा ही रूप देखा था।

मैंने अपने दूसरे जीवन में जितनी भी शादियां देखी थीं-वे सब बिल्कुल अलग थीं-अनुष्ठान का अर्थ था उपहार ग्रहण। रोशनी से जगमगाता भवन, या सजा शामियाना, उसमें लम्बे-लम्बे टेबिल, कांटा-छुरी-चम्मच की आवाज, वर्दी पहने वैरे, तरुणियां मेनका, रंभा, उर्वशी जैसी सजी-धजी होतीं। अगर उनमें से कुछ प्रौढ़ भी हों तो साज पोशाक से युवती नजर आती थीं। और फूल के गुलदस्तों के भार से बोझिल दूल्हा-दुल्हिन। जो एक-एक बार उठ कर नम्रता की मुद्रा में दोनों हाथ बढ़ाकर उपहार ग्रहण में लगे रहते।

इसी प्रकार की शादियां देखने का मैं आदी हो चुका था। भूल ही गया था और भी एक तरह का ब्याह-अनुष्ठान आज तक चालू है। अभी भी बनारसी साड़ी पहने बहू-बेटियां माथे पर सूप, टोकरी, घड़ा लेकर दूल्हा-दुल्हिन को घेर लेते हैं-अभी भी शादी की समाप्ति पर छोटे-छोटे कुल्हड़ द्वारा बचपने का खेल खेला जाता है।

सप्तपदी भी तो होती है।

माधवी नाम बड़ा मधुर था। चेहरा भी खराब ना था पर विषन्न और क्लान्त था। शुभदृष्टि के वक्त भी वही क्लिष्टता, विषनन्ता देखकर मुझे जरा हताशा हुई थी। तस्वीर देख सोचा था शायद गरीबी, मेहनत, चिन्ता और अनजाने भविष्य से भयभीत है या परेशान है। पर अतनू बोस के साथ अपना भविष्य जोड़ वह खूब विदा हो जायेंगे। उसके नीरस चेहरे पर रस बरसेगा, बुझी आंखों में दिखाई देगी उज्ज्वलता। सुखी गृह में ही तो रूप का वास होता है।

दुखी लड़की सुखी गृह में जायेगी, उसके सुख से मैं भी सुखी हो पाऊंगा। पर शुभदृष्टि के समय भी इतनी दुखी? अतनू बोस के साथ भाग्य का सिंहद्वार खुल जाने पर भी? बूढ़ा दूल्हा शायद अच्छा नहीं लगा। खुद भी तो बच्ची नहीं है। उस लड़के की दीदी है तो कम-से-कम तीस-बत्तीस की तो होगी ही। उस समय कौड़ी के खेल के समय उसके हाथ की शिरायें साफ नजर आ रही थीं। उम्र ना होने पर ऐसी नजर नहीं आती।

इसके पहले भी तो यह खेल छोटे-छोटे नरम फूलों जैसे हाथ और भारी-भारी नरम मोम की तरह मुट्ठी जिनमें शिरायें दिखती ही ना थीं-इसका मतलब उनकी आयु बहुत कम थी।

अच्छा तो मैं किस उम्र के कगार पर खड़ा हूं। जीवन में कितने ही प्रकार के इतिहास रचे, लेकिन मैं अपने आप को कहां बूढ़ा मान पाता हूं?

माधवी की शिरायें तो दिखती थीं पर जब सुहाग रात के वक्त जब उसके हाथ की उंगली में अंगूठी पहनाने लगा तो पसीने से गीला नरम और ठंडा जैसै पत्थर की तरह लगा तब मुझे अच्छा लगा। एक प्रकार की रूमानी भावना से दिल भर गया।

बेबी की तस्वीर को एक चन्दन की लकड़ी के डिब्बे में रखा था, वह वहीं रही। पौली बोस की कोई भी तस्वीर इस घर में नहीं थी।

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