नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
...फिल्म खत्म होगा आठ पैंतीस पर, इसका मतलब इधर हाथ में पच्चीस मिनट
होंगे-उधर...अच्छा, स्टेशन से घर कितना समय...?"
"रिक्शे पर करीब दस मिनट।"
"लास्ट ट्रेन कितने बजे?"
"नौ पचास पर। एक उससे पहले भी है आठ पचपन पर।"
"बस ठीक है। लास्ट ट्रेन पकड़ा दूँगा, ग्यारह बजे के भीतर पहुँच जायेंगी।"
अनिन्दिता बोली, "सुन रही हो चित्रा? रात के ग्यारह बजेंगे। जैसे कोई
असाधारण-सी बात हुई!"
आलोक बोला, "अच्छा ठीक है, असाधारण ही सही। कभी-कभी घर वालों को चिंतित करने
से भाव बढ़ जाता है।"
"वह सब आप लड़कों के लिए चलता है। लड़कियों का क्या हाल होता है, आपको क्या
पता?"
"क्या लड़कियों का ट्रेन फेल नहीं हो सकता है?"
"सवाल नहीं उठता है। शाम के पाँच बजे से रात के आठ बजे तक, हर आधे घंटे पर
ट्रेन खुलती है।"
बीच में टोककर शाश्वती बोली, "क्यों बात बढ़ा रही है अनु! हमारे लिए इवनिंग शो
देखना असंभव है। यहाँ से हावड़ा पहुँचते ही-नहीं बाबा, सबके साथ मार्केट तक
चलकर खिसक जायेंगे वहाँ से।"
मगर चित्रा का वह भाई ऐसा चिपकू है किसे पता था?
बात दरअसल यह है कि यह उम्र ही ऐसी है कि कोई किसी बात से डरता है, जान कर
मजा आता है और उस डर को भगा सकने पर एक विजय गौरव का अनुभव होता है। जिस तरह
डरपोक यार चाहे कितना भी खीसे, उसे सिगरेट पीना सिखाकर ही छोड़ते हैं।
अत: तर्क-वितर्क में आलोक ने उन दो लड़कियों को हरा दिया।
"हावड़ा स्टेशन पहुँचने की कोई चिंता नहीं, साथ में गाड़ी है।"
"गाड़ी? गाड़ी कब लाये भैया? गाड़ी तो बाबूजी...''
"अरे बाबा! हमारे बाबूजी के ऐम्बैसेंडर के सिवा क्या और कोई गाड़ी नहीं है
दुनिया में? शिशिर आया है।"
"शिशिर!" अचानक चित्रा का रंग खिल उठा। मगर जल्दी से उसे फिर बदल कर लापरवाही
के ढंग से बोली, "ओह! तेरा वही गाड़ीवाला मस्तान दोस्त? जानती है अनु, जैसे
मोर बिना कार्तिक नहीं, भैया के ये जिगरी दोस्त भी गाड़ी के बिना नहीं रह सकते
हैं।"
आलोक मुस्कुरा कर बोला, "कौन कब किसका जिगरी दोस्त बन जाय, कौन कह सकता है!"
चित्रा बोली, "भैया एकदम फालतू बात नहीं।"
"ठीक है, ये रहे तुमलोगों के टिकट। फेंक दो, घर जाकर सजा कर रख दो, मेरा
क्या! मैं तो चला।"
''ओह भैया, ऐसी विपत्ति के समय सात-सात अबलाओं को अकेली 'असहाय छोड़कर चले
जाओगे? सब गड़बड़ तो तुमने ही किया।"
"मैंने गड़बड़ किया?"
गंभीर स्वर में चित्रा बोली, "और नहीं तो क्या? जब 'मैटिनी' का टिकट नहीं
मिला तो छोड़ देते। फिर कभी आ जाते हम लोग।"
"इसी उम्र में मैं अपना हार्ट फेल कराने को तैयार नहीं था।" गंभीर स्वर में
आलोक बोला।
"क्यों? फेल क्यों?"
"सीधी बात है। टिकट नहीं मिला, यह खबर सुनते ही तो धड़ाधड़ सबका हार्ट फेल करने
लगता और ऐसे सात-सात दृश्य देखने के बाद क्या मेरा हार्ट भी...''
हँसी के फव्वारे छूट पड़े।
उधर हावडा स्टेशन तक छोड़ने के लिए गाड़ी का इंतजाम है, ऐसा आश्वासन मिलने पर
शाश्वती और अनिन्दिता भी अंत में राजी हो ही गई। शायद यही एकमात्र कारण नहीं
था। दोस्तों के साथ मिलकर सिनेमा देखने में जिस मजे की बात सोची थी उन दोनों
ने, उसके साथ एक और तीव्र आकर्षण का मजा भी जुड़ गया था।
वह चिपकू लड़का है कितना स्मार्ट।
बात-चीत में भी वैसा ही धुरंधर!
तेज भी उतना ही!
किस प्रकार आदमी को मनवाया जा सकता है, इस मनस्तत्व को भली-भाँति जानता है
वह। इस उम्र में ऐसे साहचर्य के आकर्षण से बचना कठिन है। और घर के लोगों से
डरने वाली बात को अधिक प्रकट करते हुए भी बुरा लगता है, एक दीन-हीन भाव झलक
उठता है।
घर में तो वही होगा जो भयंकर बात नसीब में लिखी हुई है। क्या किया जाय!
अत: राजी हो गई दोनों। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो शाश्वती शुरू से ही
अपने निश्चय पर अटल थी, अनिन्दिता को झुकते देखकर और भी कठोर हो रही थी, अंत
में जाकर वही बोल उठी, "ठीक है, मैं राजी हूँ।"
उसके बाद मार्केट जाते समय रास्ते में हँसी-तमाशा जमकर चलने लगा।
"उफ, तुम दो बहनों ने जो चक्कर चलाया। हम तो सोच रहे थे मार्केट तो दूर रहा,
इवनिंग शो भी न छूट जाय।... चित्रा, तेरा भैया भी न, बड़ा चिपकू है।
...'नहीं' कहने से मानूँ कैसे? हमारी सहेली है, बिना सिनेमा देखे चली जाती तो
हमें दुःख होता, उन्हें क्या तकलीफ हो रही थी?...अनिंदिता, तुझे देखकर लग रहा
था तू लट्टू हो गई। ही-ही-ही। ''
शायद इसे ही कहते हैं हँसी-ठिठोली।
मार्केट में भी आलोक साथ देता रहा। चित्रा ही पकड़कर लाई, "ए भैया, मार्केट की
लुभावनी चीजों को देखकर ऐसे सर चकरा जाता है कि रास्ता-वास्ता याद नहीं रहता।
एक भूल-भुलैया जैसा लगने लगता है। तुम साथ चलो न!"
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