लोगों की राय

नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15406
आईएसबीएन :9789380796178

Like this Hindi book 0

इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...



घर में केले का बाग है। इस घर के 'थोड़' खा-खाकर पड़ोस वालों का जी उकता गया है। फिर भी क्षेत्रबाला उस सब्जी के लिए जिस प्रकार से अफसोस करती है, सुनकर लगेगा वह दुर्लभ वस्तु इस जिंदगी में दुबारा नहीं मिलेगी।  ''...हाय मैं मर जाऊँ! घिसे हुए नारियल अरूई के चोखे के साथ मिलाना भूल गई? गरम-गरम न मिलाओ तो खाने में मजा आएगा क्या? उस दिन इसी तरह कच्ची इमली की चटनी में सरसों पीस कर देना भूल गई। (उस दिन का अर्थ पिछले द्वादशी के दिन) खाना पकाते समय दिल और दिमाग कहाँ छोड़कर आती हो बहू? दिनभर में यही तो एक बार खाते हैं ये लोग। टिफिन में सब्जी-पराठे लेने का रिवाज ही चला गया। खरीद कर कोई कितना पेट भर सकता है? बराबर मझले भैया को घी से सने पराठे और आलू की सूखी-सब्जी देती रही, भक्ति-मुक्ति सब ले जाते थे। अभी आकर सुन रही हूँ यह सब हजम नहीं होता है। वह कौन-सा नींबू दे रही हो बहू?
"अरे छी छी। ताजा कागजी नींबू कल तोड़वा कर रखा मैंने।"
जब तक सारे ट्रेन न निकल जायँ, स्टेशन-मास्टर को चैन नहीं।
"आजकल के बच्चे सुबह-सुबह मछली-सब्जी यह सब खाना पसंद नहीं करते हैं, यही देखकर हैरान रह जाती हैं क्षेत्रबाला। ऐसी बात उन्होंने अपने बाप के जमाने में भी नहीं सुनी है, यह बात भी केवल घर पर नहीं, सारे पड़ोस में सुना आती हैं-"पका-पकाया खाना छोड़ कर सिर्फ दाल-भात-भाजी खाकर उठ जाते हैं, कभी सुना है तुमलोगों ने? लड़कियों के तो और भी नखरे हैं। ब्रती की बेटी अच्छी-भली थी, शुरू-शुरू में आकर कितने चाव से सबकुछ खाती थी, अब मुक्ति के बच्चों की देखा-देखी उसे भी नखरा आ गया है।"
बोलती ही चली जाती है। इतना बोलना अच्छा भी लगता है किसी को? बच्चे पीछे से हँसते रहते हैं।
फिर भी क्षेत्रबाला, "थोड़ा-सा और खा ले बेटा!" कहकर खुशामद करती हैं उनकी। उन्हें खुश करना चाहती है बेर के अचार, आम के मुरब्बे खिलाकर।
द्वादशी की सुबह कट जाने पर रमोला कहती है, "आज का पाप कट गया।"
भक्तिनाथ की बीवी रिश्ते में रमोला की सास लगती तो है मगर इधर फटकती भी नहीं। सुबह से दोपहर तक कमरे में बैठी क्या करती है, ईश्वर ही जानते हैं:
मजे की बात तो यह है कि उससे कोई कुछ उम्मीद भी नहीं रखता है। ऊपर से नीचे बुलाकर कोई काम उस पर सौंप देने से शायद कर भी देती है, जैसा कि जरूरत पड़ने पर घर आया मेहमान भी कर देता है। मगर ऐसे आदमी को बुलाकर काम कराने की इच्छा ही किसे होती है? क्षेत्रबाला को तो नहीं होती हे, रमोला को भी नहीं।
अत: मनीषा से कोई उम्मीद नहीं करता है। केवल उसके पीछे से या दीवार को सुनाकर उसे जिन विभिन्न विशेषणों से भूषित किया जाता है, वे चाहे कुछ भी हों, प्रशंसाजनक तो नहीं होते हैं।
क्या मनीषा नामक वह स्त्री, इस घर में जिसे 'छोटीबहू' का पद प्राप्त है, सचमुच इतनी बुरी है? क्या उसके मुरझाये हुए गम्भीर निरासक्त चेहरे को देखकर ऐसा लगता है? नहीं। ऐसी बात नहीं है। वह तो केवल अपने जीवन की तुच्छता से व्यथित है, अपने जीवन की व्यर्थता से मलिन है।
ब्याह से पहले मनीषा कविता लिखती थी, संगीत व चित्रकला का शौक था उसे। अपने स्कूल-मास्टर पिता की सीमित आय से चल रही गृहस्थी में पलकर भी उसका कला-प्रिय सुकुमार मन एक सुसंस्कृत जीवन का सपना देखता था। पिता की आर्थिक अवस्था कमजोर होने के कारण ब्याह करने में देर हो गई। उम्र कुछ अधिक हो गई और शायद इसी कारण 'जीवन' के विषय में उसकी अपनी एक परिकल्पना बन गई।
जीवन की उस छवि में एक गैर-जिम्मेदार, बावले थियेटर-पागल पति की कोई कल्पना नहीं थी। उसकी कल्पना एक अध्यापक, कवि, साहित्यिक और नहीं तो पिता की तरह एक स्कूलमास्टर तक ही जाती थी। क्या हुआ अगर जेब में पैसे कम हुए? तंगी हो तो गृहस्थी में, मगर हृदय से ऐश्वर्यवान हो, 'संस्कृति' का सही अर्थ समझता हो!
मगर मनीषा का पति तो चोटी के साथ सर देने पर तुला रहता है।  'संस्कृति' शब्द से विशेष सम्पर्क न रखते हुए भी सालभर सांस्कृतिक कार्यक्रम में लगा रहता है।
मनीषा के पिता जब लड़के को देखकर लौटे तो बड़े उत्साहित होकर उन्होंने कहा था, "क्या लड़का देखकर आया मैं। बिल्कुल राजकुमार लगता है!"
और कहा था, "सुना है, लड़के को गाने-बजाने का बड़ा शौक है। दफ्तर के बाद उसी में डूबा रहता है। मनीषा जैसा चाहती है, वही होगा।''
गाँव को छोटी नजर से नहीं देखा था उन्होंने, मनीषा को भी ऐसी शिक्षा नहीं दी थी उन्होंने। कहा था-गाँव के जीवन में प्रकृति का स्पर्श है।...
सुनकर मनीषा नामक एक स्वप्न-विभोर-सी लड़की, प्रकृति की गोद में पले, संगीत के रस में ढले एक अनदेखे राजकुमार के हाथों अपना सर्वस्व समर्पण करने की आशा से कम्पित हो रही थी।
मनीषा के विधाता ने समर्पण का वह छलकता प्याला चकनाचूर कर दिया। ऐसे एक गैरज़िम्मेदार, वास्तवबुद्धिहीन, ख्याली आदमी को लेकर किस सुन्दर जीव की छवि देखेगी मनीषा? और मनीषा के इस जीवन में सम्मान भी कहाँ है? घर-भर के लोगों के मुँह से एक ही बात तो निकलती है-''भक्ति? उसकी बात छोड़ो!''
ऐसी परिस्थिति में कहाँ है प्रतिष्ठा? कहाँ है सम्मान या गौरव? तो भी अगर कम-से-कम कहीं भव्यता की छाप होती! मन-ही-मन मनीषा ने कहा-''बाबूजी, तुम्हारे पसन्द के लड़के में प्रकृति का स्पर्श है, परन्तु वह निहायत ही वन्य प्रकृति है।''
''वह आदमी जबरदस्त खाता है, बोलता रहता है अनर्गल और हँसता रहता है। उसकी उन बातों में बुद्धि की छाप देख पाना कठिन है। उसके हँसने के कारण को देखकर हँसी आती है और खाने के ढंग से जी घबराता है।''
एक जवान लड़का सुबह-सुबह उठकर थाली भरकर आम, आधा कटहल या थाल भरकर मूढ़ी-फुलौड़ी खा सकता है, यह मनीषा सोच भी नहीं सकती है।
नहीं, भक्तिनाथ का 'विशेष प्रिय' कोई भोजन नहीं है, भोजन-मात्र ही भक्तिनाथ को विशेष प्रिय है।

ताड़ के पके हुए फलों के बड़े बनाते समय जब क्षेत्रबाला ताड़ के रस को छानते हुए हँसकर कहती है, ''ढेर सारा नहीं बनाने से काम चलेगा भला? माँ षष्ठी की कृपा है और मेरा भक्तिनाथ तो अकेले ही एक गमला फाँक जायगा।'' तब मनीषा मारे शर्म के धरती में गड़ जाती है।
हर बात में रुचि की यह स्थूलता स्पष्ट हो जाती है।
अब तो मनीषा दूसरे कमरे में सोती है, मगर वैवाहिक जीवन के प्रारंभ में तो यह सम्भव नहीं था। अगर होता तो क्या तीन साल में तीन बेटों को धरती पर लाती मनीषा?
और मनीषा के पिता के खुशी-भरे आश्वासन का क्या हुआ? उसका क्या परिणाम हुआ?
कभी-कभी जोरों की हँसी आती है मनीषा को। मुहल्ले-भर के सारे आवारा बेकार लड़कों को लेकर शौकीन थियेटर करने को अगर गाने-बजाने का शौक कहा जाय तो मनीषा लाचार है। वह तो नहीं कहेगी!
मगर वह खेल-खेल का नशा ही भक्तिनाथ का ध्यान-ज्ञान, चिंतन-मनन, कल्पना-सपना है, एक प्रकार से यही उसकी सम्पूर्ण सत्ता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book