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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15406
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


शक्तिनाथ समझ गये कि क्षेत्रबाला का तर्क सही था इसलिए समझौते के ढंग से बोले, ''दाई-वाई से क्यों नहीं करा लेती है?''
क्षेत्रबाला स्वर में झंकार उठाकर बोली, ''हाँ, वह नहीं तो और कौन करेगी भला? यहाँ की काम करने वाली लड़कियों के मक्खन-से कोमल हाथ हैं भैया। कहती हैं कोयले के चूरे से हाथ कट जाएगा, जले हुए कोयले से हाथ में घाव हो जाएगा।''
थोड़ा हँसकर शक्तिनाथ बोले, ''वह तो कहेगी ही। पैसे नहीं मिलने से भला कोई.......'पैसा मिलेगा' कहकर देखना।''
क्षेत्रबाला लापरवाही के स्वर में बोली, ''अभी तक किस ज़माने में हो भैया? ये लोग आजकल पैसे की परवाह भी करते हैं क्या?''
''क्या कहती है रे खेतू? गरीब आदमी, पैसे की परवाह नहीं करते हैं?''
''ऐसा ही तो देखती हूँ। गरीब भी कहाँ हैं? हमारे यहाँ बर्तन माँजने वाली दुर्गा को तो महीने में दो सिनेमा नहीं देखने से खाना हजम नहीं होता है। और कपड़े धोने वाली बिंदु? उसका जो पहनावा है, हमारे घर की बहू-बेटियों का भी हमेशा नहीं होता है। प्रिंटेड रंगीन साड़ी, प्रिंटेड ब्लाउज।''
नाश्ते की थाली को करीब खींचकर गंभीर स्वर में शक्तिनाथ बोले, ''उनकी बात रहने दे! ऐसी बात है तो फिर चारा क्या है?''
बेल चखकर शक्तिनाथ बोले, ''यह कहाँ का बेल है?''
क्षेत्रबाला ने जवाब दिया, ''और कहाँ का होगा? अपने ही यहाँ, बड़े पेड़ का बेल है।''

''पता नहीं आजकल उतना स्वाद नहीं मिलता, पहले जैसी मिठास नहीं है।''
दार्शनिक होकर क्षेत्रबाला बोली, ''पेड़ों को भी इस ज़माने की हवा लग गई है। किसी भी फल में अब पहले जैसा स्वाद नहीं है। होते भी कम हैं।''
थाली नीचे रखकर दलान के किनारे जाकर शक्तिनाथ गिलास के पानी से हाथ धोते-धोते गम्भीर भाव से हँसकर बोले, ''तू हर बात की एक व्याख्या दे देती है।''
लौटकर बैठे और पास में रखे गीले गमछे से हाथ पोंछकर बोले, ''मगर गलत भी नहीं कहा तूने। धरती पर अनाचार जितना बढ़ रहा है, प्रकृति उतनी ही रूठती जा रही है।''
क्षेत्रबाला तब तक कुशल हाथों से आसन, थाली-गिलास सब भीतर रखकर आ गई। रख देना ही ठीक है, किसी का भरोसा कहाँ है? घर में लोगों की क्या कमी मगर ज़रूरत के समय कोई मिले तब न?
बड़ी बहू की छोटी लड़की सामने ही तो घूम रही है। अगर कह दूँ, जा, यह सब ले जा, तो इस पत्थर की थाली के अभी पाँच टुकड़े कर डालेगी। दस-ग्यारह साल की हो गई, अभी भी बच्ची बनी रहती है। माँ खिला देती है तो खाती है, कपड़े माँ ही पहना देती है।
......अपने बचपन की याद आ जाती है क्षेत्रबाला को। चार-पाँच वर्ष की थी तभी से माँ के काम में हाथ बँटाती रहीं। पान लगाया, साग बीन दिया, दाई के माँजे हुए बर्तनों पर माँ पानी डालती गई और वह एक-एक को धोकर गमछे के टुकड़े से पोंछ कर दलान पर रखती गई। और थोड़ी बड़ी हो गई तो छोटी मछली चुन देती थी, छोटे-से घड़े में पोखर से पानी ला देती थी।.....उसी हाड़-मास से बने तो ये भी हैं, हमलोग इतने मजबूत कैसे होते थे और ये ही ऐसी 'फूलकुमारी' क्यों होती है क्या जाने!
शक्तिनाथ फिर आकर चौकी पर बैठे, सामने सड़क की ओर निहारने लगे। नहीं, रिक्शे की ठुन-ठुन ध्वनि का कोई पता नहीं, इधर शाम ढलने को है।
क्षेत्रबाला बोली, ''अभी से राह देखकर क्या होगा? लड़कियों के आने में अभी घंटा भर देर है। कहकर गई है, छ: बजे की गाड़ी से आयेगी।''
नाराज़ स्वर में शक्तिनाथ बोले, ''अक्सर देर हो रही है आजकल इतना क्या काम होता है उन्हें?''

''वह हम-तुम क्या समझेंगे भैया! बुढ़िया की डाँट का तो वे मजाक उड़ा देती हैं।''

''उनकी माँ तो कह सकती है।''
''माँ! हूँ! तब क्या सोचना था। माँ की शह मिलने से ही तो......वही रोज शॉपिंग की फरमाईश करती रहती है।......चलो तुम पढ़ो।''
भैया का दिल रखने के लिए ही क्षेत्रबाला प्रतिदिन थोड़ी देर महाभारत सुन लेती है। जल्दी आती नहीं है क्योंकि एक बार भैया पढ़ना शुरू कर देते हैं तो जल्दी छोड़ते नहीं।
उधर काम के चलते क्षेत्रबाला का मन बेचैन हो उठता है। मगर करे तो क्या? विधवा है, ऊपर से उम्र भी ढल रही है। धर्म के दो वचन भी तो सुनने चाहिए। अच्छा नहीं लगता है, कहकर भैया की आँखों से गिर जाना भी नहीं चाहती है।
शक्तिनाथ भी क्या समझते नहीं? क्षेत्रबाला को घड़ी-घड़ी जम्हाई लेते और इधर-उधर देखते हुए देखकर मन-ही-मन शक्तिनाथ हँसते हैं, परंतु यह बात मुँह पर कहकर उसे छोटा नहीं करते हैं। जो कहना होता है, घुमाकर कहते हैं।
अब हँसकर बोले, ''तू भी क्या सुनेगी। अभी कहेगी, जरा देख आती हूँ-चूल्हा सुलगा कि नहीं, अच्छा जरा देख लूँ आटा गूँथ रहे हैं कि नहीं?''
क्षेत्रबाला को इस बात से कोई संकोच नहीं हुआ। तीखे स्वर में बोली, ''तो फिर करूँ क्या? जिधर ध्यान न दूँ वहीं काम पड़ा रह जाता है।''
मुस्कुरा कर शक्तिनाथ ने फिर पुस्तक पर ध्यान दिया-....''अक्रोध के द्वारा क्रोध को पराजित करो, सत्कर्मों के द्वारा असत्कर्मों को पराजित करो, सत्य के द्वारा मिथ्या को पराजित करो।......स्त्री, धूर्त, आलसी, भीरू, क्रोधी, पुरुषाभिमानी, चोर, कृतघ्न तथा नास्तिक लोगों पर कभी विश्वास नहीं करना।.....
शुरू-शुरू में ऐसी कठिन भाषा क्षेत्रबाला के सर के ऊपर से निकल जाती थी, अब सुनते-सुनते थोड़ा समझने लगी हैं। बीच में ही टोककर उन्होंने कहा, ''अभी-अभी क्या पढ़ रहे थे भैया? यहाँ स्त्री का अर्थ कोई भी स्त्री है या विवाहिता पत्नी?''
शक्तिनाथ हँस पड़े। बोले, ''पत्नी? नहीं, उसकी बात नहीं है। नारी मात्र के बारे में कहा गया है।''

असंतुष्ट होकर क्षेत्रबाला बोली, ''वही तो। जितने बुरे लोगों के साथ स्त्री जाति को एक पंक्ति में खड़ा कर दिया गया है। अगर शास्त्र में ही स्त्री जाति को इतना नीचे दिखाया गया है तो मूर्ख लोगों का क्या दोष?''
शक्तिनाथ को फिर आँखों में कुछ परेशानी हो रही थी। दुबारा चश्मे को उतार कर रगड़ कर पोंछने लगे शीशे को। फिर ठीक से नाक पर चढ़ा कर गम्भीर
भाव से हँसकर बोले, ''लगता है, ज़माने की हवा तुझे भी लग गई, नारी के अधिकार के लिए आवाज़ उठा रही है। उस दिन मुक्ति की बेटी भी।''
अचानक रुक गये, कान खड़े कर दिये उन्होंने। एक रिक्शे के आने की आवाज आ रही थी क्या?
आवाज निकट तक आई भी मगर सामने से और आगे निकल गई।
चिंतित स्वर में शक्तिनाथ बोले, ''नहीं, कुछ ज्यादा ही देर हो रही है। तू एक बार बड़ी बहू से पूछ न जाकर-''
क्षेत्रबाला बोली, ''तुम्हारा जी चाहे तुम पूछ लो भैया, मेरा जी नहीं करता! देर करने पर चिंता प्रकट करने से ये लोग बात को मजाक में उड़ा देते हैं।'' शक्तिनाथ नाराज़ होकर बोले, ''खाक उड़ा देते हैं! सब तेरी मन-गढ़ंत बात है। आखिर माँ का दिल है, चिंता नहीं करेगी?''
'महाभारत' को बंद करके शक्तिनाथ ने भीतर आकर पुकारा, 'बड़ी बहू!' पता नहीं किधर से रमोला निकल आई। कुछ पूछा नहीं उसने, केवल सामने आकर खड़ी हो गई।
किसी एक ज़माने में चाचा-ससुर के सामने घूँघट डालती थी, बाद में सर पर आँचल रख लेती थी, अब कुछ भी नहीं करती है। ऐसी ढलती शाम के समय भी बाल खुले हैं, कपड़े अस्त-व्यस्त, वैसे ही चली आई है।
शक्तिनाथ बोले, ''बच्चियाँ कुछ कहकर गई हैं क्या?''
रमोला निरासक्त स्वर में बोली, ''क्या कहकर जाएँगी?''
''देर करने की बात ही पूछ रहा हूँ बहू और क्या पूछूँगा?''
रमोला दीवार पर चढ़ती एक छिपकली की ओर देखते-देखते बोली, ''टिकट मिलने पर सिनेमा देखने जायगी कहकर गई है।''
शक्ति चौंके बिना नहीं रह सके और इसे छिपा भी नहीं सके। बोले, ''किसके साथ जायगी?''
रमोला की नज़र अब छिपकली से हटकर चाचा-ससुर पर ही पड़ी। उनसे भी ज्यादा हैरान होकर बोली, ''किसके साथ क्या? अपने-आप ही जायेगी।''
''कलकत्ते में ही न?''
होंठों पर हँसी दबाकर रमोला बोली, ''और नहीं तो क्या-आपलोगों के इस मंडल विष्णुपुर के 'महालक्ष्मी टॉकीज़ में?'
शक्तिनाथ इसके बाद वहाँ नहीं रुके। फिर से बाहर आकर चौकी पर बैठे। चश्मे के डिब्बे से जिस पृष्ठ को चिहित कर गये थे, उसे खोलकर फिर पढ़ने बैठे।.....अब जोर से पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी, क्षेत्रबाला जा चुकी थीं।

शायद चूल्हा सुलग गया कि नहीं, यही देखने के लिए।
शक्तिनाथ ने अपना ध्यान पुस्तक पर केन्द्रित करने की कोशिश की। पढ़ने लगे-हे राजन। धर्म नित्य-पदार्थ है, सुख व दुःख अनित्य, अत: आप अनित्य वस्तु का परित्याग कर नित्य वस्तु में लीन होकर अतिशय संतोष-लाभ कीजिए...धन-धान्य पूर्ण वसुंधरा के शासनकर्ता, महाबली भूपतियों को भी अंत में राज्य और विपुल विषय-सुख परित्याग कर......
आगे नहीं पढ़ सके, रुक गये। शाम का अँधेरा बढ़ रहा था, आँखों के आगे एक धुँधली-सी चादर बिछ गई थी।
पढ़ना छोड़कर चश्मा डिब्बे में बंद करके रख दिया शक्तिनाथ ने। बैठे-बैठे सोचने लगे, सोलह वर्ष की उम्र में एक बार दोस्तों के साथ मिलकर पास के गाँव में नौटंकी देखने चले गये थे, लौटने में सुबह हो गई थी।
मन में यही आशा थी कि योगनाथ गंगास्नान के लिए चले गये होंगे। ढाई कोस दूर गंगा, गंगास्नान के पुण्य-अर्जन के लिए आने-जाने में रोज पाँच कोस चलना पड़ता था।
इधर-उधर नहीं करते थे। पौ फटने से पहले ही निकल जाते थे ताकि लौट कर खा-पीकर आठ-दस वाली गाड़ी भी पकड़ सकें।
चाहे दुनिया उलट जाय पर योगनाथ का यह नियम नहीं पलटता था।
परंतु शक्तिनाथ के दुर्भाग्य से योगनाथ की दिनचर्या में उस दिन परिवर्तन हो गया। घर लौटते ही पिता से आमना-सामना हो गया उनका।
मटका1 की धोती ऊँची करके पहने, तन पर 'काली' नामांकित चादर, हाथ में काशी के पीतल का ढक्कन वाला लोटा और पाँव में खड़ाऊँ थे।
पूरी तैयारी करने के बाद ही क्रोध से बौखला रहे थे, इसमें कोई संदेह नहीं। अधिक बात नहीं की उन्होंने। न चीखे-न चिल्लाये, बस गंभीर स्वर में बोले, ''चल तेरी चमड़ी उधेड़ता हूँ।''
फिर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए पाँव से खड़ाऊँ निकाल लिया था उन्होंने। इसके बाद की बात वह सोच नहीं सकते, एक प्रकार से अविश्वसनीय ही थी। सत्यवादी योगनाथ ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी, यही देखने वाली बात थी।
याद है उन्हें, किशोर शक्तिनाथ ने सोचा था, गंगास्नान करके इस खून बहाने के पाप को धो डालेंगे, शायद इसी कारण से नियम तोड़कर आज इतनी देर तक घर बैठे थे, नहीं तो अब तक तो नहाकर लौट ही आते।
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1. पूजा करने के लिए शुद्ध वस्त्र


परंतु क्या शक्तिनाथ के मन में अपने पिता के लिए श्रद्धा, भक्ति और प्यार नहीं था?
उस दिन नहाकर लौटने के बाद समय की कमी के कारण भात न खाकर केवल एक नारियल का लड्डू खाकर और पानी पीकर ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़े थे, इसी कारण तो शक्तिनाथ को ज्यादा रोना आया था उस दिन।
आज शक्तिनाथ मुक्तिनाथ के बच्चों को देखते हैं, भक्तिनाथ के बच्चों को भी देखते हैं, और देखकर हैरान रह जाते हैं।

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