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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

2

अवंती बोली, ''ठहरो। रुक जाओ। और यदि रिक्शा भी न मिले तो?''

यही तो चिन्ता की बात है।

अरण्य ने दयनीय स्वर में कहा, ''बेचारी यों छटपटा रही थी कि बर्दाश्त नहीं हो रहा था। वहाँ से निकलने पर ही जान में जान आयी।

''हुँ! भागकर जान बचाना! यही तो स्वभाव है। बहरहाल, जरा रुक जाओ। भागना नहीं। मैं गाड़ी निकालकर आती हूँ।"

"गाड़ी! तुम्हरी गाड़ी में...''

अरण्य ने गंभीर स्वर में कहा, "अवंती, यह पागलपन है या अहंकार?"

"जो मर्जी हो, सोच सकते हो। मगर चले मत जाना। एक मिनट में आयी।"

अरण्य ने गौर से देखा।

कितना आत्म-केंद्रित हाव-भाव है, जैसे रानी-महारानी हो। जैसे बराबर गाड़ी चलाने की अभ्यस्त रही हो।

अरण्य के चेहरे पर और अधिक गंभीरता उतर आयी। बोला, "अवंती!''

"कहिए, सर!''

अरण्य ने कठोर स्वर में कहा, "अहंकार की भी कोई न कोई सीमा होनी चाहिए।"

अब अवंती के चेहरे पर भी गंभीरता उतर आई। बोली, "मैं भी यही बात कह रही हूँ, अरण्य। अहंकार की कोई न कोई हद होनी चाहिए। अपने बेतुके अहंकार की ध्वजा फहराकर तुम उस औरत को मार नहीं सकते।"

फिर भी अरण्य ने हठधर्मिता के स्वर में कहा, "सभी के गाड़ी, कार वाले दोस्त नहीं होते, अवंती। वे लोग इसी तरह काम चला लेते हैं।"

"और मरते भी हैं इसी तरह। मैं सोच भी नहीं सकती कि किसी औरत को ऐसी हालत में रिक्शे पर बिठाकर...यह भी तो नहीं कर पाते हो। कह रही हूँ, रुक जाओ, एक कदम भी आगे मत बढ़ाना।"

इसके बाद आगे बढ़ना संभव न हो सका। एक कदम भी नहीं।

अवंती बरामदे पर चढ़, घर के भीतर घुसती है। सचमुच एक ही मिनट के दरम्यान हाथ में कार की चाबी लिये बगल के दरवाजे से निकलकर बाहर आई।

और इस एक मिनट के दरम्यान ही एक आदमी वहाँ से बाहर निकला। गैरेज के ताले को खोलने के बाद कॉलप्सिवल को ठेल उसने गाड़ी निकालने की तैयारी कर दी।

सिर्फ कॉलप्सिवल ही नहीं है, उसके सामने मजबूत लोहे का दरवाजा है। दोहरी सुरक्षा का प्रबन्ध। गेट के सामने ही गैरेज है। अब तक सिर्फ भूरे रंग का ही दरवाजा दिख रहा था, अब अरण्य ने देखा, अगल-बगल दो गैरेज हैं। एक खाली है और अब दूसरा भी खाली होने जा रहा है।

वेश-विन्यास में साज-सिंगार का कोई स्पर्श नहीं है, जिस हालत में थी, उसी हालत में बाहर निकल आयी। कामगार से बोली, "लोकनाथ-दा, बहुत जरूरी काम से बाहर निकल रही हूँ, कब वापस आऊँगी, बताना मुश्किल है। देर भी हो सकती है। जरा मिस्त्रियों पर निगरानी रखना।

''और कृष्णा से कह दो कि मेरे कमरे में ताला लगा दे। मैं संभवत: इसी लेक टाउन के गिर्द रहूँगी।''

गैरेज के अन्दर घुस एक गड़गड़ाहट पैदा कर अवंती बाहर निकल आयी।

लोकनाथ अब निश्चित होकर गैरेज की जिम्मेदारी सँभालेगा। इसलिए उस ओर निगाह उठाकर भी नहीं देखा। इसमें संदेह नहीं कि पुराना आदमी है। गाड़ी जब आगे बढ़ रही थी, अरण्य गेट के सामने से हटकर खड़ा हो गया था। अवंती ने दृढ़ स्वर में कहा, "बैठ जाओ।''

उसका कथन आदेश जैसा सुनाई पड़ा। कम-से-कम अरण्य को ऐसा ही लगा।

लेकिन इतना जरूर है कि अपमान का अहसास होने के बावजूद आदेश ठुकराने का साहस नहीं हुआ, क्योंकि हालत अभी गंभीर है। न मालूम वहाँ अब तक कौन-सी घटना घट चुकी होगी।

मगर सच्चाई क्या सिर्फ यही है? सिर्फ श्यामल की पत्नी की हालत सोचकर ही? आदेश ठुकराने की असमर्थता का कारण क्या कहीं दूसरी जगह निहित नहीं है?

वह गाड़ी पर चढ़कर बैठ गया। (जैसे गाड़ी पर चढ़ पीठ टिकाए बैठने पर उसकी जान में जान लौट आयी हो)। अरण्य जरा अवहेलना की हँसी हँसते हुए बोला, ''तुम्हारे पास बहुत सारे नौकर-चाकर हैं न? हुक्म करते-करते वही स्वर कंठस्थ हो गया है।''

अवंती ने स्टीयरिंग पर हाथ रखकर कहा, ''यह सब छोड़ो। पहले यह बताओ कि किस ओर जाना है।''

''जिस ओर से आ रहा था, उसी तरफ।''

''ठीक है, मकान बता देना।''

थोड़ी देर तक स्तब्धता छायी रही।

जनशून्य रास्ते पर गाड़ी चलाना कोई बड़ी बात नहीं है। फिर भी अरण्य ने अपनी बगल के मुखड़े की ओर निहतारते हुए सोचा, कितना आत्म-केन्द्रित भाव है! जैसे रानी-महारानी हो। अरण्य क्या उससे रश्क करे?

थोड़ी देर बाद अवंती ने ही चुप्पी तोड़ी। बोली, ''हाँ, क्या कह रहे थे? मेरे घर में बहुत सारे नौकर-चाकर हैं, इसलिए हुक्म का स्वर ही कंठस्थ हो गया है, यही न?''

''यह तो स्वाभाविक ही है।''

''सो तो नौकर-चाकर से बतियाते देखा; हुक्म का टोन कब देखा?'

अरण्य तनिक हतप्रभ हो गया। देखा नहीं है, यह सच है। लोकनाथ-दा कहकर ही संबोधित किया था। फिर भी लाज ढँकने के खयाल से बोल उठा, ''गौर नहीं किया। लेकिन इस अभागे के प्रति हुक्म का टोन जोरदार ही सुनने को मिला।''

''सुनना उचित ही है। क्योंकि यह अभागा सचमुच अभागा ही है।''

अरण्य हल्की हँसी हँस पड़ा। बोला, ''निःसंदेह यह बात सच है।''

उसके बाद बोला, ''अब दाहिनी ओर।''

अवंती बोली, ''श्यामल का यह फर्स्ट चाइल्ड है?''

''इसके अलावा और क्या हो सकता है? यही तो पिछले साल शादी हुई है।''

''कैसे जान सकती हूँ, बताओ तो सही! मुझे क्या कोई खबर भेजता है?''

अरण्य बोला, ''अरे बाबा! तुम्हारे ससुर की ड्योढ़ी लाँघ खबर पहुँचाने का साहस किसे है?

''यह जान छुड़ाने जैसी बात है। डाक प्यून कम-से-कम सबकी ड्योढ़ी लाँघ सकता है। बहरहाल, ऐसे वक्त में औरतें मायके में ही रहती हैं।,श्यामल की पत्नी यहाँ क्यों है?''

''माँ नहीं है, बाप बीमार है।''

'माँ नहीं है।' यह सुनते ही अवंती की आँखें एकाएक भीग क्यों गईं? अवंती की तो माँ है। इसके अतिरिक्त अवंती अतिशय संवेदनशील भी नहीं है।

अरण्य बोला, ''पहुँच गए हैं, कुछेक मकानों के बाद जो पीले रंग का मकान है, वही।''

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