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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

8

आश्चर्य की बात है! अकसर रात के वक्त घर लौटने पर अरण्य की मुलाकात अपने भैया से नहीं होती है। मुलाकात होती है तो दूसरे दिन सवेरे। अनन्य सोने में बहादुर है। ऑफिस से वापस आते ही खाना खाकर लेट जाता है। किताब-बिताब पढ़ने का भी व्यसन नहीं है। अरण्य बीच-बीच में कहता है, ''जिन्दगी का आधा हिस्सा तूने सोकर ही बिता दिया, भैया। कितनी बड़ी बर्बादी है!'' भैया को अलबत्ता शर्म का अहसास नहीं होता। कहता है, ''तेरी तरह जीवन का तिहाई भाग सड़क पर मारे-मारे फिरकर बिता देने से यह कहीं बेहतर है।''

वही भैया इतनी रात में सड़क पर!

बोला, ''क्या बात है, भैया, तू अभी तक सड़क पर है?

अनन्य ने धीमी आवाज में कहा, ''क्या कहूँ, एक सनसनी घटना घट गई है।''

''बाप रे! आज ही क्या सनसनी घटनाओं के घटने का दिन है।''

अनन्य ने सन्देह के स्वर में कहा, ''क्यों? दूसरी कौन-सी घटना घटी?''

''वह कोई खास बात नहीं है। बाद में सुनने से भी काम चल सकता है। तेरे साथ क्या घटना घटी है?''

''वह एक भयंकर घटना है। समु-दा की पत्नी जलते हुए जनता स्टोव में तेल ढालने के दौरान साड़ी में आग...सिनथेटिक साड़ी पहन क्यों औरतें...''

अरण्य ने कठोर स्वर में कहा, ''जलते स्टोव में तेल ढालने के दौरान यह घटना घटी है? तूने इस पर विश्वास कर लिया?''

अनन्य ने लज्जित स्वर में कहा ''तेरी भाभी ने तो यही बताया! सुनने को भी यही मिला। इसके अलावा और क्या हो सकता है?''

''इसके अलावा और सुनने को मिलेगा ही क्या? किसने बताया?''

''अरें, आज शनिवार है न? माँ जिस तरह कालीघाट जाती है और वापस आने के दौरान बड़े मामा के घर से घूम-फिर आती है, उसी तरह आज भी गई थी। जाने पर यह कांड देखा। पत्नी को अस्पताल ले जा रहा था। इसलिए वापस नहीं आ सकी। तीसरे पहर तक आई तो तेरी भाभी चिन्ता के मारे बेहाल हो गई। साथ ही यह भी सोच रही थी कि शायद बड़ी मामी ने खाना खाकर लौटने का आग्रह किया होगा, क्योंकि कल एकादशी थी। लेकिन तीसरे पहर मामा के घर से सुरेश बाबू के घर फोन कर किसी ने इस बात की सूचना दी। ऑफिस से आने पर सुना तो मैं भौंचक-सा हो उठा। सो एक बार जाने के लिए छटपटाहट महसूस कर रहा हूँ। क्या हुआ था, यही जानने के खयाल से। साथ ही माँ को भी ले आना है। रात में अकेले नहीं आ सकेगी। सो यह सुनकर तेरी भाभी इतनी नर्वस हो गई है कि इतनी रात में किसी भी हालत में अकेले घर में रहना नहीं चाहती। ''और, तूने आने में इतनी देर कर दी-बहरहाल, आ गया है तो मैं चलता हूँ।''

अरण्य बोला, ''तू यहीं रह-मैं ही जाता हूँ।''

''नहीं-नहीं, तू क्यों जाएगा? जाकर खाना खा ले। मैं खा-पीकर बिलकुल तैयार होकर इन्तजार कर रहा था। तेरे आते ही...''

अरण्य ने कहा, ''मैं न भी खाऊँ तो कोई हर्ज नहीं। थोड़ी देर पहले चाय-वाय पी चुका हूँ।''

''रहन दे। चाय पी है तो सब-कुछ हो गया। जा-जा, अन्दर जा। ज्यादा देर होगी तो हो सकता है तेरी भाभी बाहर चली आए। इस वक्त इस तरह वो करना...मतलब है माँ शनिवार-वनिवार वगैरह क्या तो कहती रहती है...''

अरण्य ने सन्देह के स्वर में कहा, ''इस वक्त का मायने?''

यह कहते ही महसूस किया कि वह बेवकूफ की तरह बोल गया है। औरतों के 'इस वक्त' का अन्तर्निहित अर्थ एक ही हुआ करता है। औरतों के जीवन में यह एक अजीब ही तरह की घटना होती है। श्यामल की पत्नी की कैसी हालत है, यह जानने के लिए कल सवेरे ही भागे-भागे जाना पड़ेगा।

अरण्य ने अपने भाई के प्रश्न पर माथा खुजलाकर एक चोरी छिपी मुसकराहट के साथ कहा, ''मायने और क्या, वो...बच्चा-बच्चा होने वाला है...''

अरण्य मन-ही-मन हँस पड़ा। अनजान बनने का यह भान!

जबान से कहा, ''गुड न्यूज। बहरहाल, मेरे जाने से कोई असुविधा नहीं होती।''

''नहीं-नहीं, तू दिन भर के बाद-नहाएगा-धोएगा, सुनने को मिला, तू बहुत पहले ही घर से निकला था।''

नहाना-धोना!

यह एक सही बात है।

अरण्य ने महसूस किया, खाने के वनिस्वत यह अधिक जरूरी है। बोला, ''पर तू जाएगा कैसे? अब क्या बस मिलेगी?''

''देखूँ, अगर मिल जाए। वरना एक रिक्शा ले लूँगा। तू अन्दर चला जा। दरवाजा बन्द कर देना।''

अरण्य ने कहा, ''रिक्शा छोड़ना नहीं। एकबारगी माँ को लेते हुए ही चले आना।''

''यही तो सोच रहा हूँ। देखूँ, माँ आना चाहेगी या नहीं। बड़ी मामी तो निश्चय ही बड़ी वो हो गई है...''

इरा बोली, ''उफ! इतनी देर बाद आना हुआ छोटे साहब का! मजे में हो, भैया!''

अरण्य ने शर्ट खोल, फर्श पर फेंक दी और बोल उठा, ''मजे में क्यों नहीं रहूँगा? मजे में रहने की खातिर ही ब्रह्मचर्य का पालन कर मर रहा हूँ।''

''धत्त! कितना असभ्य है, बाप रे!''

''वाह! इसमें असभ्य होने की कौन-सी बात है? मजे में रहने का राइट है, यही कह रहा हुँ। अच्छा, नहा-धो लूँ।''

इरा ने धीमे स्वर में कहा, ''बड़े बाबू से मुलाकात हुई है न?''

''मुलाकात न हुई होती तो पाँव आगे बढ़ाने की हिम्मत होती, तुमने भी दिखा दिया। उमर ढलती जा रही है और भूत के डर से थरथरा रही हो। एकाध घण्टा भी अकेली नहीं रह सकती?''

इरा उत्तेजित हो उठी, ''अहा, यों ही क्या? खबर सुन चुके हो न?''

''सुन चुका हूँ। लेकिन इससे तुम्हारे अकेले रहने का कौन-सा सवाल जुड़ा हुआ है?''

''आह! डर क्या लगता नहीं? सोच रही हूँ और भय बढ़ता जा रहा है। तुम लोगों के समु-दा की इतनी सुन्दर पत्नी! लेकिन हाँ, मुझे सन्देह हो रहा है...''

''क्या सन्देह हो रहा है?''

''यही कि यह एक आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। संभवत: घटना घटित की गई है।''

सन्देह बेशक अरण्य को भी हुआ है, तो भी अबोध के स्वर में बोला, ''सन्देह का कारण?''

''वाह, उतनी विदुषी, बुद्धिमती स्त्री यह नहीं जानती कि जलते हुए स्टोव में तेल डालना बड़े जोखिम का काम है!''

अरण्य मुसकराया, ''मगर रिस्क जानने के बावजूद आदमी हमेशा कितना कुछ कर बैठता है। सोचने से कोई फायदा नहीं।''

इरा ने क्या सोचा, वही जाने। रक्तिम चेहरे के साथ कहा, ''उफ्, छोटे साहब, मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। तुम बिलकुल वो हो।''

''बाप रे! मैंने ऐसी कौन-सी बात कही?''

''कुछ नहीं, जाओ। सुनो, मेरा कहना है, शाश्वती-दी का मामला निहायत सरल गणित नहीं है। यह जान-सुनकर किया गया है।''

तो भी अरण्य ने अबोध होने का भान करते हुए कहा, ''अरे, यह क्या कहती हो! उन लोगों ने तो बदस्तूर प्रेम-विवाह किया था।

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