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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

11

आज इतना भर 'शट' करना था लेकिन खत्म ही नहीं हो रहा था। मंजरी ध्यान ही नहीं देती है कि उसकी गलती की वजह से ही यह 'शॉट' ठीक नहीं हो रहा है... वह धीरे-धीरे थकने लगी, क्लिष्ट होती गयी।

खैर, किसी तरह से 'बंधन कटने कटाने' का सीन खत्म हुआ। निशीथ राय की दूसरी जगह शूटिंग थी, वह बराबर घड़ी देख रहे थे। अतएव पैकिंग हो गयी।

गगन घोष बोले, "आज अचानक आपको हुआ क्या?'' उनकी आवाज में चिड़चिड़ापन था, विस्मत था।

थकी-थकी आवाज में मंजरी बोली, "भयानक सिर दर्द हो रहा है।"  

"अरे? ये बात है? अहा अहा, अरे कौन है? जरा एक टैक्सी तो... ''

निशीथ राय ने एक बार और हाथघड़ी पर नजर डाल निर्लिप्त भाव से कहा, "मैं भी उतारकर जा सकता हूं हाँलाकि अगर मंजरीदेवी को कोई आपत्ति न हो तो।"

टैक्सी के आने तक रुकना पड़ेगा, पर मंजरी अब रुक नहीं सकती थी, उससे बैठा नहीं जा रहा था। फिर आपत्ति की क्या बात है? फिर वैसा करना तो पुरातनपंथी कहलाएगा।

इसीलिए मुस्कराकर बोली, "एतराज? अरे आप छोड़ देंगे इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? मेरी इच्छा हो रही है जल्दी से लेट जाऊं।"

कार पर उसने अपने को एक कोने पर जमा सा लिया। निशीथ राय जनश्रोत में कार दौड़ते चल रहे थे। दोनों खामोश थे।

थोड़े देर बाद निशीथ राय ने ही खामोशी तोड़ी, "रास्ता बताने की जिम्मेदारी लेकिन आपकी है... मैं आपका घर नहीं पहचानता हूं।"

गर्दन उठाकर मंजरी ने बाहर देखा, "अरे, तो फिर अब तक सही रास्ते पर कैसे जा रहे हैं?"

निशीथ राय ने गर्दन घुमाकर उसकी तरफ देखा फिर हंसकर कहा, "कुछ कुछ अंदाज से। सोचा था, चलाता चलूं गलती करूंगा तो आप प्रतिवाद करेंगी ही।"

मंजरी एक सेकंड चुप रहने के बाद जरा सा आग्रह प्रकट करते हुए बोली,  "अच्छा, आपको क्या लगता है, दुनिया में सारा प्रतिवाद गलती के विरुद्ध ही किया जाता है?

"उस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। निश्चिंत व्यवहार श्रृंखला में बंधे मनुष्यों के किसी काम में बाधा पहुंचती है तो प्रतिवाद उठता है। युगयुगांतर के कुसंस्कार मन में, शरीर के चमड़े की तरह, चिपके बैठे रहते हैं। उस संस्कार को उखाड़ना चाहोगे तो आर्तनाद का उठना स्वाभाविक ही है।"

"तब तो उस आर्तनाद, उस प्रतिवाद को न सुनना ही ठीक होगा।"

तीक्ष्ण बुद्धि निशीथ राय मुस्कराकर बोले, "आपने यह प्रसंग क्यों छेड़ा है, समझता हूं। लेकिन असली बात क्या है बताऊं, कुछ लोगों का स्वार्थत्याग, कुछ का विद्रोह और कुछ लोगों का दुःसाहस ही बाकी चलने का रास्ता सुगम कर देता है।"

"लेकिन उचित अनुचित का सवाल तो है।"

"अवश्य ही। लेकिन उस प्रश्न का उत्तर दूसरों के पास नहीं है। हर आदमी में 'उचित बोध' नामक चीज है ही।"

"तब तो दुनिया में अन्याय होता ही नहीं।"

"इस तरह के तूर्क का कोई अंत नहीं।"

'अच्छा, आप खूब पढ़ते हैं न?"

"पढ़ता हूं? हाय हाय, इच्छा तो बहुत है लेकिन समय कहां है?''  

"जानते हैं? पहले आप लोगों के बारे में कितना कौतूहल होता था अब खुद ही आप लोगों के दल में शामिल हो गयी हूं।"

"अब शायद कौतूहल भंग हो चुका है?''

"क्या पता! रुकिए-रुकिए, अब सीधे नहीं बढ़ना है दाहिनी तरफ मुडिए... ओह!"

"क्या हुआ ?"

"कुछ नहीं। सिर का दर्द... ''

दुमंजिले के बारामदे पर खड़े-खड़े अभिमन्यु ने देखा, एक बड़ी सी कार आकर घर के सामने खड़ी हुई, उसमें से एक सूट पहने सुतपुरुष सज्जन उतरे, उतरी मंजरी। विनीत नमस्कार और धन्यवाद जताकर वह घर के भीतर चली आई। वह सज्जन एक जवान युवक की तरह कार में फुदककर जा बैठे। कार स्टार्ट हो गयी।

कुछ आवाजें, कुछ देर खामोशी।

अभिमन्यु क्या मंजरी से बात करने जाए? क्या जाकर पूछे, "जो तुम्हें पहुंचा गए वह सज्जन कौन हैं?"

लेकिन कौन बात करे? मन में तो वितृष्णा और खीज भरी पड़ी है।

न:, अभिमन्यु गया नहीं, अभिमन्यु पत्थर की मूर्ति की तरह बारामदे की रेलिंग के पास खड़ा रहा। पीछे से मंजरी ने पुकारा क्षीण कंठ से, "सुनते हो? एक बार डाक्टर बाबू को खबर करोगे?"

चौंककर अभिमन्यु ने देखा, "डाक्टर बाबू को? क्यों? क्या हुआ?"  

"तबीयत बहुत खराब लग रही है। शायद... शायद... तुम जाओ, अभी आओ। देर करोगे तो मुश्किल हो जायेगी।"

अभिमन्यु उद्विग्न लेकिन रुखी आवाज में बोला, "अचानक हुआ क्या? गिर विर गयी हो क्या? इसीलिए मोटर से... ''

'आ:! सवाल बाद में पूछना। हाथ जोड़ती हूं... जल्दी जाओ।"

कमरे का पर्दा हटाकर फर्श पर ही लेट गयी मंजरी और शायद इसी के साथ बेहोश भी हो गयी।

बिना आवाज के चलना, बोलना... मद्धिम रोशनी। मृदु नीला बल्व जल रहा था कमरे में, धीमी गति से पंखा चल रहा था।

उसी वक्त डाक्टर देख गये थे। उनके जाते ही मझले भाई भाभी चले गए थे। सिर्फ एक दीदी रोगिणी के सिरहाने बैठी थीं। दूसरी दीदी मां के पास बैठी अफसोस जाहिर कर रही थी। पूर्णिमादेवी बहुत दुःखी थीं। अगर विधाता ही उन्हें ऊंचे पेड़ की चोटी पर बैठाकर सीढ़ी हटा ले तो वह इंसान को क्यों दोष दें?

इन तीन महीनों में मन-ही-मन उन्होंने जिस मंदिर में बाल-गोपाल की स्थापना कर डाली थी, उस मंदिर के स्थापित होने से पहले ही भीत ढह गयी। उन्होंने सोचा था मंजरी के पंख काटकर उसे उड़ना भुला देंगी, वह आशा टूटकर बिखर गयी। अंकुर फूटने से पहले ही पृथ्वी से विदा हो गया।

चैतन्य मंजरी जान भी न पाई कि उसका कितना नुकसान हो गया लेकिन पूर्णिमादेवी ने अनुभव किया कि कितना नुकसान हुआ।

विशेषज्ञ चिकित्सकों के विदा लेकर चले जाने के बाद, पारिवारिक चिकित्सक नीलांबर घोष आए थे केवल आश्वासन देने। केवल यही नहीं उनकी परामर्श की कीमत थी क्योंकि वे अभिमन्यु के पिता के समय के डाक्टर हैं-लगभग सगे अभिभावक जैसे।

खाट के सिरहाने अभिमन्यु खड़ा था, रोगिणी आखें बंद किए लेटी थी।

रक्तचाप निर्णायक यंत्र को ठीक से डिब्बे में भरते हुए डाक्टर नीलांबर घोष बोले, "नहीं, और किसी तरह की कोई गड़बड़ी नहीं है, कुछ दिनों तक पूरी तरह से विश्राम करेगी तो आशा है ठीक हो जायेगी।"

अभिमन्यु ने एक बार निद्रिता की तरफ देखने के बाद मृदुस्वर में पूछा, "लेकिन अचानक इस तरह से होने का क्या कारण हो सकता है?"

"कारण बता सकना कठिन है। सिर्फ एक ही कारण नहीं हो सकता है... किसी भी बीमारी का एक ही कारण नहीं होता है। कभी-कभी छोटे-छोटे कारण इकट्ठा होते-होते देहयंत्र अचानक विद्रोह कर बैठता है अथवा सारे यंत्र ही खराब हो जाते हैं।"

"फिर भी ऐसे मामलों में एक न एक कारण तो होता ही होगा।"

नीलांबर हंसकर बोले, "वह तो रहता है। मान लो गिर गयी उससे चोट लगना, आकस्मिक किसी तरह का शोक पाकर उसका शॉक, गुस्सा दुःख भय भी और शारीरिक दुर्बलता जैसे अनेक कारण हो सकते हैं। जब ये सब कारण नहीं है तब कहना पड़ेगा कि जनरल हेत्थ ही ठीक नहीं थी। तुम कह रहे थे बाहर से आते ही ऐसा हुआ? कहां गयी थीं या गए थे तुम लोग? दावत?''

पुराने ख्यालों के आदमी, मान बैठे थे कि बाहर गयी होगी तो अभिमन्यु भी साथ ही होगा। इसीलिए उससे पूछने से सही बातें मालूम होंगी।

डाक्टर बाबू का प्रश्न सुनकर अभिमन्यु ने चौंककर उत्तर दिया, "न! यूं ही जरा घूमने... वैसे कितने दिन रेस्ट लेना जरूरी लगता है डाक्टर चाचा?"  

"और कितना?" प्रस्थान करने के लिए उठकर खड़े हो गए डाक्टर नीलांबर, "दस बारह दिन लेटी रहे इसके बार हफ्ते भर घर ही में चले फिरे... और क्या? चिंता की कोई बात नहीं है।"

डाक्टर चले गए-पीछे-पीछे अभिमन्यु।

हाथों हाथ फीस दी नहीं जा सकती थी-डाक्टर सगे जैसे थे। कार पर बैठने के बाद चुपचाप रुपया उनकी जेब में रखकर उदास भाव से अभिमन्युल बोला, "तो आपका कहना है कि डरने की कोई बात नहीं?"

"नहीं भाई नहीं। कहा तो घबराने की कोई बात नहीं है, यह सब तो हमेशा ही हुआ करता है। हां, कुछ दिनों के लिए दौड़ भाग बंद करना होगा। छोटी बहूमां जरा चंचला प्रकृति की हैं न। तुम्हारी चाचीजी कह रही थी 'सिनेमा' में काम कर रही है... बात सच है क्या?"

अवाक् नहीं होबूंगा सोचकर भी अवाक् हुआ अभिमन्यु। आश्चर्य की बातें देखो, कहां भी बात कहां जा पहुंचती है।

कुंठित हंसी हंसा अभिमन्यु, "कुछ कहिए मत, पागलपन सवार हो गया है खैर, यही उसके लिए शिक्षा हो गयी... और हां, आज जो इंजेक्शन लगा है वही कल भी लगेगा क्या?"

"शाम को देख लूंगा-जैसा होगा... तुम्हारे मित्रा साहब क्या बोले?"  

"वह तो कह गए कि दो तीन दिन लगाओ।"

"वैसे मुझे तो नहीं लगता है इसकी जरूरत है पर वे ठहरे स्पेश्लिष्ट... उनकी राय शिरोधार्य है।" हंसकर बोले नीलांबर ड्राइवर ने कार चला दी।

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