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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

14

घर का बिस्तर नहीं, अस्पताल का बेड। इस बार अस्पताल ही ले जाना पड़ा था। कई दिनों से हालत बहुत नाजुक हो गयी थी। मौत और इंसान के बीच रस्साकशी चलते-चलते, इंसान जीत गया। धीरे-धीरे वह ठीक होने लगी।

डाक्टरों का कहना था क्राइसिस पीरियड बीत गया है।

रास्ते के उधर एक अनजाना वृक्ष, हरे पत्तों से ढका। केबिन की खिड़की से वह वृक्ष दिखाई पड़ता है। सारे दिन धूप और हवा के कारण वह हरे पत्ते झिलमिलाया करते।

उधर देखते-देखते मंजरी सोचती।

क्या सोचती थी?

कितना कुछ। अस्पताल के बेड पर लेटी मंजरी मानो दार्शनिक हो गयी थी। प्यार! प्रेम! इस प्रेम शब्द को लेकर आदी अनंतकाल से न जाने कितनी घटनायें घटीं, कितना कुछ हुआ। लेकिन इसकी कीमत क्या है? इसे केंद्रित कर कितने विज्ञापन कितना प्रचार। सब कुछ आरोपित जैसे बरगद के नीचे पत्थर का एक विग्रह। कभी कोई गलती से एक फूल फेंक गया उस पर-बस आजीवन काल उस गलती की सजा वह भोग रहा है। पत्थर सिंदूर से लाल पुता पड़ा है, फूलों का पहाड़ इकट्ठा हुआ है। अब कोई पत्थर नहीं कहता है-कहता है, 'बाबा ठाकुर'।

बाबा ठाकुर के सिर पर सोने का झालरदार चांदी का छाता, उन्हें घेर कर मंदिर खड़ा था। लोग उन्हें आंधी पानी से बचाते हैं। पत्थर के उस टुकड़े को लेकर लोग कितना गर्व करते, कितनी महिमा गाते। उनके नाम की लोग स्तुति करते, वंदना करते, प्रशस्ति गाते। आरती, नैवेद्य... बाबा ठाकुर-बाबा ठाकुर की गुहार लगाते। कोई पत्थर कहता तो लोग उसे पापी, शैतान, मानवता विरोधी कहते।

रोग शय्या में पड़े-पड़े दार्शनिक हो गयी मंजरी की आंखों ने बाबा ठाकुर का स्वरूप देख लिया।

प्यार? साबुन के बुलबुले की तरह एक अपूर्व रंग-बिरंगी चीज। इसे कांच की आल्मारी में सजाकर रख सकते हो, सुंदर है लेकिन जरा सा छुआ कि बस-खत्म।

तब?

कांच की आल्मारी में उस सजाकर रखी चीज का रहना न रहना बराबर है। उस रंगीन खिलौने को जिला रखने के लिए अगर जीवन की सारी संभावनाएं बेच डालनी पड़े तो इसका प्रयोजन क्या है?

जिस आश्रय में निश्चिंतता नहीं उस आश्रय का मूल्य क्या? इस तरह की कितनी ही बातें सोचा करती है मंजरी अस्पताल में लेटे-लेटे। केबिन की खिड़की से आकाश का एक टुकड़ा दिखाई पड़ता और दिखाई पड़ता अनजाने पेड़ के हरे पत्तों का झिलमिलाना।

शाम को सुनीति आई, आए विजयभूषण।

आज मंजरी काफी स्वस्थ लग रही थी। ऊपर से काफी खून चढ़ा था इसलिए भी चेहरा लाल लग रहा था।

''बाबा! तेरा खिला हुआ हंसता चेहरा देखकर जान में जान आई। दो-दो बार तूने बेचारे अभिमन्यु को परेशान कर दिया।''

सुनीति के बात करने का तरीका ही ऐसा है। हर समय वह पुरुषों का पक्ष लेकर बोलती है।

विजयभूषण फुलफोर्स से चल रहे पंखे के नीचे बैठे-बैठे रहकर भी हाथ के रूमाल को हिलाते हुए हवा खा रहे थे। वे बोले, ''तुम्हारा कमेंट तो बढ़िया है। अरे, इसकी तकलीफ क्या कुछ नहीं है।''

''अरे, मैं क्या ऐसा कह रही हूं? वह तो परेशान हुई ही, इसी के साथ वह बेचारा ही परेशान रहा।''

''देख रही हो साली?'' विजयभूषण करुण भाव से बोले, ''हर समय तुम्हारी दीदी परपुरुष, के प्रति पक्षपात करती हैं। और ये जो एक अभागा पच्चीस-तीस साल से इनके लिए परेशान रहता है उसके दुःख का इन्हें ध्यान ही नहीं आता है।''

''नखरा! तुम्हारे नखरे जिंदगी भर ऐसे ही रहेंगे।... मंजू तुझे कब तक छोड़ेंगे कुछ सुना है?''

''छुटकारा?'' मंजरी ने शरारत करते हुए कहा, ''छोड़ने दिया कब तुम लोगों ने? सब कोई मिलकर पिंजरे का दरवाजा पकड़कर बैठ गए-छुटकारा मिला कहां?''

''अच्छा रे शैतान लड़की... खूब बोलना आ गया है। मजाक छोड़, घर वापस जाने के बारे में सुना है कुछ?''

''नहीं तो।'' मंजरी ने अजीब सी उदास हंसी हंसकर कहा, ''सुनकर होगा भी क्या? सोचती हूं घर ही न लौटूं।''

''छि:-छि:-कैसी अशुभ बातें कर रही है।''

विजयभूषण गंभीर होकर बोले, ''अचानक वैराग्य का उदय क्यों? वह साला तो 'पत्नी' 'पत्नी' की रट लगाए अपना जीवन यौवन सर्वस्व दांव पर लगाए बैठा है यह तो देख ही रहा हूं। इस पर भी मन तक पहुंचा नहीं लगता है।''

''मन? यह क्या कोई पाने वाली चीज है जीजाजी?''

''यही तर्क तो हजारों सालों से छिड़ा हुआ है।''

''इसका फैसला कभी नहीं होगा। अच्छा बड़ी दीदी, एक बिल्कुल ही प्रैक्टिकल बात का जवाब दोगी? यहां से अगर मैं उस घर में न जाकर तुम्हारे पास जाना चाहूं-जगह दोगी?

प्रस्ताव सुनकर सुनीति चौंक उठीं। चौंके विजयभूषण।

यह किस तरह की बात?

अपने को संभालते हुए सहज भाव से जल्दी-जल्दी बोलीं सुनीति, ''लो बात सुनो! मैं तभी तो पांच बार पूछ रही हूं कि कब छूटेगी। यहां से छुट्टी होने पर थोड़े दिनों तक अपने पास रखूंगी। मां रहतीं तो मां के पास ही... ''

बाधा देते हुए मंजरी ने शांत भाव से कहा, ''मैं कुछ दिनों की बात नहीं कह रही हूं बड़ी दीदी, हमेशा के लिए कह रही हूं।''

विजयभूषण और अधिक गंभीर हो गए, ''अभिमान की नदी लगता है सीमा पार कर किनारों को बहाए लिए जा रही है-क्यों मंजरीदेवी?''

''अभिमान-वभिमान कुछ नहीं जीजाजी-यह मेरा गंभीर चिंतन का सिद्धांत है।''

सुनीति बिगड़कर बोलीं, ''सारे दिन बेकार की बात सोचोगी तो यही होगा। अभी हाल में एक उपन्यास में यही पढ़ रही थी। लेकिन गृहस्थ लड़की तो उपन्यास की नायिका नहीं है मंजू? सिनेमा में काम करने के बाद से ही मैं तुझमें ये परिवर्तन देख रही हूं। मैं तो सोचकर अवाक् हो जाती हूं... इतनी छनती थी अभिमन्यु के साथ... ''

सहसा मंजरी हंसने लगी। बोली, ''मैं भी तो यही सोच-सोचकर अवाक् हो रही हूं बड़ी दीदी। इतनी दोस्ती थी अचानक उसका अभाव क्यों हो गया।''

''तुम्हारी ही अक्ल के कारण। तुम्हारे दोष से? और किसलिए?''

''यही बात होगी। जानती हो बड़ी दीदी, पहले धारणा कुछ और थी। सोचती थी, व्यापार वाणिज्य के बनाए रखने के लिए बुद्धि की जरूरत है, और प्यार एक बार झोली में आ जाए तो इकट्ठा होता रहता है। यह नहीं जानती थी कि यह प्यार झोली में पड़ा रहा इसके लिए बुद्धि की जरूरत पड़ती है। खैर... तो ये कहो कि तुम्हारे घर में मेरे लिए जगह नहीं होगी। जानती भी थी कि होगी नहीं फिर भी कहकर देख लिया।''

सुनीति ने व्याकुल भाव से कहा, ''चल न रे! जितने दिन चाहे रहना। जब तक अभिमन्यु तेरे पांव पकड़कर क्षमा न मांगे तब तक... ''

मंजरी मुस्कराई, ''बड़ी दीदी तुम जैसी थीं वैसी ही रह गईं। मान अपमान वाली बात नहीं है ये। जीवन के सच-झूठ को जांचने की बात है। पर तुम नहीं समझोगी... तुम तो वास्तव में सुखी हो।''

विजयभूषण बोले, ''तो क्या सालिकादेवी धारणा है कि केवल अबोधजन ही सुखी होते हैं?''

मंजरी हंसने लगी, ''सब क्षेत्र में नहीं... तारतम्य भी है। जैसे आप।''

''हुं।''

''अच्छा जीजाजी, एक सवाल पूछूंगी-खूब सोच समझकर जवाब दीजिएगा।''

''आज्ञा कीजिए।''

''मान लीजिए बड़ी दीदी कोई बहुत बड़ा गलत काम करतीं... खू... ब गलत, माने मान लीजिए बहुत ही निंदनीय, बड़ी दीदी के लिए आपका मनोभाव क्या होता?''

''हुं। क्या मनोभाव होता? अवश्य ही रसगुल्ला खाने वाली बात न होती... मारपीट जैसी कोई घटना घट जाती।''

''अरे मारपीट जैसे हल्के दोष की बात मैं नहीं कर रही हूं जीजाजी... ''

''समझ गया... सिनेमा में काम करने जैसा भारी भरकम दोष की बात कर रही है तू... ''

''ओहो जीजाजी... आप कभी सीरियस नहीं हो सकते हैं। मान लीजिए दीदी ने किसी का खून ही कर डाला हो... ,'' चुन-चुनकर मंजरी ने जोरदार बात ही कही।

विजयभूषण तुरंत बोल उठे, ''तब? तब तो देशभर के सारे वकील बैरिस्टरों को इकट्ठा करके मुकदमा लड़ता जिससे कि फांसी रद्द हो जाये।''

''न:! आपसे उत्तर पाने की उम्मीद करना व्यर्थ है। लेकिन आपने क्या सचमुच कभी सोचकर देखा है जीजाजी-आप दोनों का प्यार अटूट है या नहीं, धक्का लगते ही टूटकर ढह तो नहीं जायेगा।''

''अगर सच पूछती है तो बहन, यह सब कभी सोचकर देखा नहीं है। तेरी बड़ी दीदी के साथ मेरा प्यार का रिश्ता है यह बात मैंने कभी सोची ही नहीं। जैसे यह कभी नहीं सोचा कि मेरा यह सिर धड़ पर ठीक से बैठा है या नहीं, अचानक धक्का लग गया तो स्क्रू खुलकर गिर तो नहीं जायेगा।''

सुनीति को इस तरह की बातें कतई पसंद नहीं। वह जल्दी से बोली, ''फालतू बातें छोड़ो और काम की बात करो। मैं कहती हूं-अभिमन्यु से मैं कहती हूं कि मंजू को मैं ले जा रही हूं-तबीयत ठीक हो जाने पर चली जाएगी। और सच भी है तबीयत खराब होने पर लड़की मां बहन के पास ही तो जाती है। मैं अगर शुरू में ही ले गयी होती तो ये सब न हुआ होता।''

मंजरी निराशाभरी दृष्टि से देखती रह जाती। आश्चर्य! सभी क्या एक ही बात बोलेंगे? तब क्या मंजरी की ही गलती है? लेकिन सिर्फ यही? और अभिमन्यु की कही वह भयंकर बात? वह घिनौना गंदा संदेह?

फिर भी मंजरी को उसी घर में वापस जाना होगा?

इतनी बड़ी दुनिया में उसके लिए क्या कहीं जगह नहीं?

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