नई पुस्तकें >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
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बोलीं, "चलो, तुमने तो कुछ किया छोटे देवरजी। पांच लोगों से बात करो
तो मुखोज्जवल होता है। और हम? कैसे अद्भुत लोगों के पल्ले बंधे हैं। इस जमाने का हालचाल नहीं जाना कभी। सिर्फ समझते हैं पैसा और व्यवसाय। छि:।' अभिमन्यु धीरे से हंसा, "इसके लिए आपका भाग्य दोषी नहीं है, कैपेसिटी का दोष है। गधा पीटकर घोड़ा बनाने की कैपेसिटी होती तो दुःखी होने या शिकायत करने की जरूरत नहीं होती।"
"सच कहा है। छोटी बहू में वह गुण है।...खैर छोटी बहू सिनेमा का पास-वास देगी न भाई? जिंदगी भर सिर्फ मुट्ठी-मुट्ठी पैसा खर्च करके फिल्में देखी हैं, अब बिना पैसों के देखूंगी है न मझली बहू।"
मझली बहू हंसते-हंसते लुढ़क गयी।
अभिमन्यु के लिए अपने चेहरे को स्वाभाविक बनाये रखना कठिन हो गया। मंजरी अतिथि जिठानियों की 'सेवा' के लिए इलेक्ट्रिक हीटर जलाने लगी। इस पर वे दोनों हंसकर टिप्पणी करने बैठीं, "इसी को कहते हैं लक्ष्मीबहू। जरूरत पड़ने पर सिनेमा थियेटर कर सकती है और जरूरत पड़े तो गृहस्थी का काम भी कर सकती है। और हम लोग? हि हि हि! हम सिर्फ खा सकते हैं, सो सकते हैं और दिन-दिन मोटे हो रहे हैं। छोटी बहू हमारे दल में नहीं है...अच्छी भली दुबली-पतली है। और न रहे तो चलेगा कैसे? अच्छा री छोटी बहू नाचना-वाचना भी तो पड़ेगा न?"
इसी तरह से मंजरी के जीवन की दिली इच्छा पूरी हुई। मन-ही-मन सैकड़ों बार मंजरी ने अपने कान उमेठे और सोचा, जो हो गया सो हो गया बाबा, ये आखिरी है। कौन जानता था कि इतनी सी एक चीज के लिए इतने तूफान उठेंगे।
जिस दिन फिल्म रिलीज हुई विजयभूषण आए।
आज वह नहीं छोड़ेंगे, जाना ही पड़ेगा अभिमन्यु को।
न जाने अशोभनीय होगा।
इसके अलावा, न गया तो अभिमन्यु के मनोभाव का पर्दाफास हो जाएगा, विरोधी मनोभाव का।
कौतूहल भी है। और... और?
हां, ममता भी है न।
अभिमन्यु सचमुच तो पाषाण नहीं हुआ है। उसे क्या मंजरी की छलछलाती आँखें, अभिमान से थरथराते होंठ और विषादपूर्ण चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा था? या देखकर मन को बुरा नहीं लग रहा था? लेकिन क्या करे? घर बाहर लोगों ने इस बात को इतना तूल दे दिया है, अभिमन्यु को इतना धिक्कार रहे हैं कि अभिमन्यु के लिए सहज हो पाना मुश्किल हो रहा है। बाहर जितना ही हंस-हंसकर लोगों की बातों को टाल रहा था, भीतर से उतना ही अधिक गुम हुआ जा रहा था।
आज इसीलिए धुले कुर्ते पर एक कीमती शाल डालकर फिल्म देखने के लिए तैयार हुआ और मंजरी के पास पहुंचकर अपनी भंगिमा में हंसते हुए कहा, "कैसा लग रहा हूं? स्टार का पति लग रहा हूं न?"
बहुत दिनों से अभिमन्यु ने ऐसी अच्छी तरह से बात नहीं की थी। किस बात से क्या हो जाता है। छलछलाई आँखें, सिर्फ छलछलाती ही नहीं रहीं बल्कि बरस पड़ीं।
"ये लो। ये क्या हो रहा है? अरे अरे?"
मंजरी ने साफ कुर्ते और कीमती शाल की परवाह नहीं की। ये सब आँसुओं से भीग गईं।
अभिमन्यु धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरने लगा।
अपने को धिक्कारते हुए, अफसोस करते हुए अभिमन्यु ने सोचा बेचारी मंजू बिना सोचे समझे एक बच्चों जैसी हरकत कर ही बैठी है और उसके लिए कम लांछित भी नहीं हो रही है। इधर अभिमन्यु भी नितांत ही निर्ममभाव से बाहरी लोगों जैसा व्यवहार करता रहा है। व्यंग किया है, विदुप किया है। न:! बहुत बड़ा अन्याय हो गया है।
कुछ कहने जा रहा था, कह न सका।
विजयभूषण ने आवाज लगाई, "प्राइज-वाइज बाद में आकर दे देते भाई। उधर समय निकला जा रहा है।"
समय निकला जा रहा है।
अरे हां।
समय तो भाग रहा है। इसीलिए इंसान भी सांस रोककर दौड़ रहा है। दो घड़ी बैठने का वक्त नहीं। अवसर नहीं है शांत होकर बैठे और एक बार अपने हृदय की बात कहे। सिर्फ भागो दौड़ो... समय के पीछे-पीछे।
अशांत उद्विग्नता।
दुःसह प्रतीक्षा।
सिर चकरा रहा था, फिल्म की कहानी साए की तरह आँखों के सामने से तैरती चली जा रही थी। चेतना जगत तक पहुंच नहीं रही थी। कब आयेगा वह महामुहूर्त, जब पर्दे पर झलक उठेगा एक शरीर... देह नहीं, देहातीत।
जब से होश संभाला था, बहुत रूपों में, बहुत साज-श्रृंगार करके शीशे के
बीचोंबीच जिसे देखकर मुग्ध होती रही थी, जिससे प्यार किया था, प्यार करने की इच्छा पूरी नहीं हुई थी, उसे ही नए रूप में नई सज्जा में, चित्रपट के आइने में देखने के लिए कितना संग्राम किया था मंजरी ने।
आज उसी साधना की सिद्धी, उसी सपने की सफलता का दिन।
मत्राविष्ट सी निथर बैठी थी मंजरी।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सचमुच वह दिखाई पड़ेगी। समझ में नहीं आ रहा था, देखकर पहचान सकोगी या नहीं।
अंत में आया वह क्षण।
मंजरी चित्रपट पर उभर आई। घूमी फिरी, बात की, चली गई। फिर आई, फिर बोली।
लेकिन क्या बोली? कैसा स्वर? किसका स्वर?
श्रवणेंद्रीय की शक्ति क्या खो बैठी है मंजरी? वरना कोई बात सुन क्यों नहीं पा रही है? उसकी समस्त इंद्रियों की शक्ति क्या उसकी आँखों में आ गई है?
"क्यों री, उठेगी या नहीं? बाह्मज्ञान शून्य हो गयी है जो?'' सुनीति के धक्का मारने पर चौंककर उठ खड़ी हुई मंजरी।
"चल चल, वह लोग नीचे उतर गये हैं।" कहकर सुनीति आगे बढ़ने लगी। आगे सुनीति की लड़कियां हंसती हुई सीढ़ियां उतर रही थीं।
विजय बाबू अभी नहीं जाएंगे, यहां अभी उनके दोस्त लोग थे घर की मोटर पर सुनीति बच्चों को लेकर चली गईं, ये दोनों टैक्सी से लौटे।
दोनों में से कोई नहीं बोला।
टैक्सी में अखंड नीरवता।
बस रह-रहकर सांस की एक हल्की-सी आवाज हवा में फैल रही थी। न जाने किसके सीने से वह सांस उठ रही थी।
हालांकि अभिमन्यु ही पहले बोला।
कुर्ता उतारकर अलगंडी में टागते हुए, मुंह फेरकर बोला, "चुन-चुनकर पार्ट अच्छा दिया था।"
आज मंजरी ने प्रतिज्ञा की थी किसी हालत में नाराज न होगी। गुस्सा मतलब ही तो हार-पराजय। लेकिन अभिमन्यु के इस सूक्ष्म व्यंगमिश्रित छोटी सी टिप्पणी के कारण वह प्रतिज्ञा भंग हो गयी।
वह भी व्यंग करते हुए बोली, "ठीक कहा है। अभिनेत्री का रोल ही मुझे मिलता चाहिए था।"
"अभिनेत्री न सही, कुछ और हो सकता था। पर्दे पर अगर रूप ही दिखाना था तो इतना कदाकार रूप क्यों?"
"कदाकार, कुरूप?"
"और नहीं तो क्या? जैसी तो चटाक-चटाक बोली वैसा ही कुत्सित मुंह। कैसे तुमने यह रोल किया यही सोच रहा हूं। बदसूरत लग रही थीं।" कहकर नाक सिकोड़ते हुए अभिमन्यु बिस्तर पर बैठ गया।
और ठीक तभी मंजरी को लगा कि सचमुच उसने कैसे कर लिया था? विजयभूषण ने कहा था, ''तेरे लिए तो ये पार्ट पार्ट ही नहीं है, नैचुरल है। अच्छी खासी अपटुडेट लड़की।"
लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या?
पार्ट ही एक अति आधुनिक युवती का व्यंगचित्र।
स्तब्ध अरण्य में तूफान उठा।
बहुत दिनों से संचित अश्रु, बहुत देर से भारी हुआ हृदय, अनेक अपमान की जलन और वेदना, सहसा आँसू का रूप धरकर बरसने को हुये। और अपनी पराजय को अभिमन्यु की नजर से छिपाने के लिए जल्दी से कमरे से निकल गयी मंजरी। उसने अभिमन्यु की तरफ देखा तक नहीं।
इस कमरे में रात भर नहीं आई।
अभिमन्यु ने भी अपने अहं को नीचा न होने दिया। बुलाया नहीं। सोचा, "हु! इतना गुस्सा।"
अभिमान की वेदना को गुस्सा समझकर ही तो गृहस्थी में ऐसे ऐसे अनर्थ होते हैं।
सारी रात सोकर जगने के बाद सूनी शय्या की तरफ देखकर अभिमन्यु ने प्रतिज्ञा की, "ठीक है मैं उसकी किसी बात में नहीं रहूंगा। उसे दिखा दूंगा कि उसके किसी बात से मेरा कुछ बनता बिगड़ता नहीं है।"
और सारी रात जागकर तथा सोचकर मंजरी संकल्प करती है, "ठीक है, एक चांस मैं और लूंगी। सहूंगी रिश्तेदारों मित्रों की धिक्कार बटोरूंगी निंदा, दिखा दूंगी उसे, सुंदर रूप उभारना मंजरी को भी आता है। महिमामय सुंदर रूप। प्रेम में उज्ज्वल, गौरव में समुज्ज्वल।
लेकिन कहां मिलेगा वैसा पार्ट?
विजयभूषण का शौक तो शायद इस एक बार में ही मिट जाएगा लेकिन मंजरी फिर किसको कहे?
क्या वह छिपछिपाकर परिचालक कानाई गोस्वामी से मिले? जिद करे कि उसे अगली फिल्म में हीरोइन की भूमिका दे?
ऐसा क्या संभव है?
छोटे देवर देवरानी को निमंत्रण करके बुलाने का शौक अभिमन्यु की भाभियों को कतई नहीं है।
अचानक ही कुछ दिनों बाद वही शौक दिखाई दिया-निमंत्रण आया मझली भाभी रजिता की तरफ से। टेलीफोन द्वारा नहीं, मझले भइया प्रवीर स्वयं ऑफिस से लौटते वक्त कार घुमाकर कहने आए। बोले, "अरे मनु, तेरी भाभी ने कल तुझे और बहू को बुलाया है। वहीं खाना। छोटी बना को जरूर ले आना।"
"अचानक ये दावत?"
"दावत-आवत कुछ नहीं... बहुत दिनों से साथ खाया पीया नहीं है, इसीलिए तेरी भाभी बोली, "उनसे जाकर कह आओ। कल छुट्टी भी है। नया कोई पुलाव का प्रिपरेशन सीखा है...
"तो क्या मेरे ऊपर यह एक्सपेरिमेंट होगा?" हंसने लगा अभिमन्यु।
मझले भाई भी हंसने लगे। इसी के साथ कार स्टार्ट किया। जानते हैं कि मां यहां नहीं हैं। रहतीं तो सौजन्यतावश एक बार मोटर से उतरकर उनसे मिलने जाना पड़ता।
जाना ही पड़ेगा।
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