नई पुस्तकें >> ये जीवन है ये जीवन हैआशापूर्णा देवी
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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।
पद्मलता का सपना
पति के घर से एकाधबार मैके जाने की इच्छा रखना अस्वाभाविक नहीं-अधिक दिन एक जगह रहते-रहते ऊब जाती हैं, तभी लड़कियाँ मैके जाने की जिद करती हैं। शायद कुछ परिवर्तन की हसरत या फिर मुक्ति का आनन्द लेने के लिए ही। पिता न हो तो भाई के घर ही सही। पर बाप-भाई कोई भी नहीं इसका अर्थ यह तो नहीं कि पद्मलता जीवन में एक बार भी अपने गाँव 'सोनापलाशी' की धरती पर पाँव नहीं रख सकती-जहाँ बिताये उसने अपने बालपन और किशोर अवस्था के पूरे सोलह वर्ष?
सुख-शान्ति और गौरव न सही, दु:ख और अपमान की स्मृति का भी अपना एक आकर्षण होता है। शायद अपने को सुप्रतिष्ठित दिखाने की सुप्त आकांक्षा सात वर्ष बाद अचानक तीव्र हो उठी है आज पद्मलता के दिल में।
यदु लाहिड़ी के घर की ब्राह्मणी रसोइये की बेटी 'पदमी' को अचानक पद्मलता के रूप में आविर्भूत होते देखकर सोना पलाशी के लोग कितने चकित होंगे यही देखने की तीव्र इच्छा उठती रहती उसके मन में। पिछले सात वर्षों से इसी इच्छा को पद्मलता ने पाला है मन में, मन पसन्द रंग में रँगा है उसे, एक रंगीन छवि बनायी है चन्द दिनों की। जैसे जीवन की सार्थकता टिकी हो इसी पर, तभी तो पति से मिन्नत कर इन चन्द दिनों की छुट्टी लेकर सोना पलाशी घूमने आयी है वह।
हाँ, आना बेकार नहीं हुआ उसका...कोई भी न था जो हैरान नहीं हुआ। इतने वर्षों बाद उसके आने पर नहीं, हैरान हुए सब पद्मलता की वेश-भूषा, उसके ठाठ-बाट को देखकर, मोहित हो गये सब के सब।
'पत्ते तले नसीब' कहावत को पद्मलता ने ही सच कर दिखाया क्या? शक की कोई गुंजाइश नहीं। युद्ध छिड़ा है, इस समय कुछ भी सम्भव है। इस युग के शब्दकोश में असम्भव नामक कोई शब्द ही नहीं है। युद्ध के झंझावात ने न जाने कितने पत्ते उड़ा लिये और कितने नसीब खुल गये। रातोंरात दाई से महारानी बनते देखकर भी आश्चर्य नहीं होता। इसी तरह यदु लाहिड़ी की ब्राह्मण रसोइये की बेटी 'पदमी' अगर अचानक सोना चबाकर खाना शुरू कर दे इसमें भी हैरानी कैसी? अब तो सिर्फ स्नेह से ओत-प्रोत होना है।
पद्मलता का सीधा-सादा स्कूल मास्टर पति अगर फौजी ठेकेदार बनकर सोने की सीढ़ी के पार अपना स्वर्ग बसा सकता है तो क्या गाँव के कुछ नालायक़ बेरोजगार लड़कों को नौकरी नहीं दिला सकता? क्या ये पद्मलता गाँव की एक-दो अनाथ कन्या का भविष्य नहीं सँवार सकती जो कि स्टेशन से निकलते ही दोनों हाथों से पैसे लुटाती जा रही है? दो ही दिन हुए पद्मलता का गाँव में पदार्पण हुआ है, इसी बीच गाड़ीवान से लेकर कालीबाड़ी के पुजारी तक सभी के मुँह से सिर्फ उसका ही बखान हो रहा है। सब कह रहे हैं, ''ऐसा विशाल हृदय, ऐसी ऊँची नज़र इस ज़माने में दुर्लभ है। पद्मलता की हँसी बड़ी मोहक है, बातें बड़ी मधुर और आचरण अतुलनीय। ये तो उसके बालकपन में ही झलकता था। तभी तो सारे गाँव को कितना प्यार था उससे?'' अब इसी रूप-गुण से सर्वांगसुन्दर पद्मलता को लेकर गाँववालों में अपनापन दिखाने की होड़ लग गयी तो इसमें आश्चर्य क्या?
चार दिनों के लिए आयी है पद्मलता, किसदिन किसका निमन्त्रण स्वीकार करे यही एक समस्या बन गयी है। बरसों बाद लाहिड़ियों के घर में रौनक आयी है, लोगों का आना-जाना लगा है, पद्मलता दिल खोलकर उनका स्वागत कर रही है अपनी मधुर मुस्कान और साडम्बर जलपान के साथ, जैसे वही इस घर की मालकिन ही।
यदु लाहिड़ी की मृत्यु के साथ-साथ उस परिवार की चमक-दमक समाप्त हो गयी थी। पद्मलता ने आकर उसे फिर से चमका दिया है। आज भी काफी लोगों के जाने के बाद आँचल में पद्मलता के दिये पाँच रुपये प्रणामी बाँधते हुए कण्ठ में मिसरी घोलकर सत्यबाला अपनापन जताकर बोली, ''कल मेरे घर दो कौर मछली-भात खाना बेटी पद्मरानी, कोई बहाना नहीं चलेगा।''
''राय चाची ने पहले ही से बोल रखा है सतुबुआ,'' पद्मलता का स्वर विनय से और भी मधुर हो गया, ''नहीं जाने से बुरा मान जाएगी।''
''अरे ये राय चाची कौन है रे? मुकुन्द राय की भाभी है न? न्यौता के बहाने खुशामद करना है और क्या? मैं तो सच बोलूँगी-हाँ।''
''क्या कहती है सतुबुआ। मैं क्या चीज़ हूँ कि कोई मेरी खुशामद करेगा। छि: छि:! बार-बार कह गयी है, इसीलिए...''
''बार-बार हम नहीं कह सकते हैं? और सच पूछो तो बार-बार कहना ही क्यों, तू कोई परायी है क्या? सबसे पहले मेरी बात रखनी है-समझी। तुझे शायद याद नहीं मगर तेरी माँ मेरी कितनी श्रद्धा भक्ति करती थी। वह प्यार का नाता और कोई क्या समझेगा।''
पर समझाने की आवश्यकता ही क्या?
सोलह वर्ष तक इसी गाँव के अन्न-जल में पलकर गयी है पद्मलता। बड़े अपमान और लांछन से मिला अन्न। कैसे भूल सकती है वह कि सत्यबाला की विषैली रसना को कितनी श्रद्धा की अंजलि देती थी उसकी माँ? इतनी शीघ्रता से भूल जाय ऐसी कमजोर याददाश्त तो नहीं।
माँ के लिए दु:ख नहीं होता पद्मलता को, सिर्फ़ माँ की याद के साथ स्मृति का सागर जैसे उथल-पुथल करने लगता। हाँ...लाहिड़ी परिवार के इसी बरामदे में...कड़क सर्दी की रात... बर्फीली हवा जैसे सुई की नोक बनकर हड्डियों को चुभो रही है...दुबली-पतली-सी एक विधवा...बारहों महीने खाँसती रहती है...एक हाथ से अपनी सफ़ेद धोती के छोटे-से आँचल को खींच-खींचकर शीत के भीषण प्रकोप से बचने की व्यर्थ चेष्टा करती और साथ-साथ अगले दिन की कार्यसूची के हिसाब से तैयारी करती जाती और खाँसती जाती।...उसकी खाँसी की आवाज़ जैसे आज भी बरामदे के छज्जों में ठहरी हुई है, जैसे रात निस्तब्ध होते ही उसकी गूँज सुनाई देगी।...उसी के पीछे लगी घूमती रहती एक छोटी-सी लड़की। उसके भी कपड़े पर्याप्त नहीं, एक मोटे कपड़े का लहँगा पहनी है जो यदु लाहिड़ी की किसी पोती ने चिथड़े करके कभी फेंक दिया था।
माँ की पीठ से लगकर रहने से फिर भी थोड़ी-सी गर्मी मिलती पर गर्दन पर जैसे बर्फीली छुरी फिर जाती...धीरे-धीरे सुन्न हो जाती उसकी पीठ...तब तो ठण्ड की अनुभूति भी नहीं रह जाती, केवल थोड़ी-सी जगह पर दर्द जैसा महसूस होता।...ज्यादा तकलीफ़ दोनों हाथों को लेकर...दो नन्हे-नन्हे बर्फीले हाथों से माँ के काम में हाथ बँटाने की हसरत से इतना पानी उछालती कि अचानक ठण्ड से उँगलियाँ टेढ़ी हो जातीं...फिर तो माँ का काम भी बढ़ जाता। लालटेन के ऊपर आँचल रखकर उसकी गर्मी से बेटी के हाथ-पाँव सेंकती और उसे गोद में बिठाकर मृदु तिरस्कार करती। कहती, ''नन्ही-सी जान, क्यों ठण्ड में मेरे पीछे-पीछे घूमती रहती है? कितना काम बाक़ी पड़ा रहता उसका, केवल खाना पका लेने से ही छुट्टी कहाँ। साथ में एक लड़की भी पल रही है, मुफ्त का तो नहीं खा सकती। इसीलिए रसोई के काम के साथ घर के और बीस काम सँभाले बिना गुजारा कहाँ होता।''
इसीलिए बेटी को कहती कमरे में जाकर सोने के लिए। मगर अँधेरे कमरे के उस सुनसान, निरावरण शय्या की याद आते ही दिल काँप उठता उस बेचारी का...तेल की बू आ रहे तकिये पर जैसे किसी ने पानी उँड़ेल दिया हो...मातृवक्ष के उत्ताप के बिना वह सोये भी तो कैसे। और फिर दुनिया-भर के भूत-प्रेत, दैत्य-दानव झुण्ड बनाकर उसी कमरे के अँधेरे कोनों पर खड़े नहीं होंगे क्या? उस अँधेरे कमरे की दीवारें ईंटें, बालू और पलस्तर के आवरण को भेदकर ऐसा विकट रूप धरतीं जैसे शरीर के भीतर से अस्थि-पंजर सब निकल आये हों। फिर कैसे न काँप उठती उस नन्ही-सी बालिका की अन्तरात्मा?
यदु लाहिड़ी की बीमार पत्नी उठकर बैठ भी नहीं सकतीं मगर घर के किस कोने में कब क्या हो रहा है यह उसे किसी-न-किसी तरह पता चल ही जाता था। जब दीये की रोशनी का भरोसा देकर बेटी को वह कमरे में सुलाने आती, दुमंजिले की खिड़की से लाहिड़ी-पत्नी का नाराज स्वर गूंज उठता, ''अरी नवाबज़ादी, बेटी को दुलार थोड़ा कम किया कर, दीये में तेल मुफ्त का तो नहीं आता। थोड़ी अक्ल से काम लेती तो मुझे यूँ बुरा न बनना पड़ता। दो-दो आदमी को भात-कपड़ा देकर पालना आसान बात है क्या? ज़रा-सा क्या काम करती है, आधी रात तक माँ-बेटी घूम रही हैं। ये जो अपनी सुविधा के लिए अगले दिन का आधा काम तू रात को ही निपटा लेती है इससे मेरा कितना किरासन बर्बाद होता है, कभी सोचा भी है तूने? सोचे भी क्यों, अपनी जेब से जाता तब न? बदनसीबी से मैं बीमार पड़ी रहती हूँ नहीं तो तेरे जैसी बेईमान को क्यों रखती भला...''
एक बार बोलना शुरू करती तो रुकने का नाम ही नहीं लेती। दीया कब का बुझ चुका होता। भूत-प्रेत का डर कितना भी भयानक क्यों न हो, लाहिड़ी-पत्नी के क्रोध से अधिक तो नहीं।...फिर कभी किसी बरसाती मौसम में पानी में छप-छप करते हुए कीचड़ पर से चलकर माँ के साथ पोखर तक आना-जाना, एक अजीब-सी सुख-दुःख की मिश्रित अनुभूति थी वह। कभी-कभी तो बड़ा मज़ा आता। मगर जब माँ की खाँसी ज्यादा बढ़ जाती, उसे लगता अपनी मलिन शय्या में माँ से लिपट कर सो जाय, खाने की ज़रूरत ही क्या-दो-चार दिन न भी खाए तो क्या हो जाएगा? मगर जरूरत नहीं है कहने से ही तो ज़रूरतें मिट नहीं जातीं। उस छोटी-सी उम्र में ही इतना उसे समझ लेना पड़ता।
अब इसी घर का एक और दृश्य याद आता है...यही घर, यही बरामदा, मगर लोग जैसे बदल गये। उस फटे-पुराने फ्राक में खड़ी गेहुँये रग की दुबली-पतली लड़की के बदले एक नवयौवना, स्वास्थ्य की दीप्ति से भरपूर किशोरी एक साड़ी में अपनी लज्जा ढँक नहीं पाती...शीत-निवारण से भी कठिन लगता अपने-आप को, अपने उभरते यौवन को इस छोटी-सी साड़ी में ढँककर लोगों की उत्सुक दृष्टि से बचा पाना। फिर भी घर का सारा काम सिर झुकाकर वही सँभालती। वह निर्बल बीमार विधवा और भी जीर्ण-शीर्ण होकर उसी के सस्नेह डाँट-फटकार की पात्र बन जाती। माँ को जल्दी सोने को भेजती और कहती...''अकेले जाती क्यों नहीं, डर लगता है? भूत पकड़ लेगा क्या?''
इस नवयौवना को माँ कैसे समझाये कि उसका डर भूत से भी प्रबल है। एक तो अनाथ विधवा की बेटी का चढ़ता यौवन ऊपर से इतना रूप। बेटी चलती-फिरती और माँ विमुग्ध दृष्टि से निहारती-हाँ, पद्म नाम सार्थक ही तो है। दोनों पैरों को ही देख लो, जैसे दो कमल धरती पर खिले हों। मगर इतनी जल्दी क्यों बड़ी हो रही है? दया और अवहेलना के अन्न से इतनी पुष्टि कैसे हो गयी?
लाहिड़ी-पत्नी का दिल क्यों न जले? उनकी दोनों पोतियाँ मलेरिया के चपेटे से घायल, अस्थि चर्म के ढाँचे में चमगादड़-सी शक्ल लिये घूमतीं और इधर चौदह पूरे हुए कि नहीं, पद्मावती रूप की चाँदनी बिखेरने लगी है। तभी तो उसे बुलाकर कहती, ''अरी पद्मी, खाना कम खाया कर। पराया धन समझकर इतना मत खा कि हाथी लगने लगे। तुझे देख-देखकर तो तेरी माँ का खून भी पानी होने लगता है।''
सारा अपमान पीकर मुश्किल से हँस पाती पद्मी, फिर कहती, ''माँ के शरीर में खून बचा ही कहाँ अब! सब तो पानी हो चुका है। उसकी इतनी हिम्मत पर अगर लाहिड़ी-पत्नी गाली-गलौज़ न करती तभी आश्चर्य होता सबको।''
केवल लाहिड़ी-पत्नी ही क्यों, मुहल्ले का कोई भी तो कसर नहीं छोड़ता। उसका रूप आँखों में चुभता, गुणों से लोग तंग आ जाते, खिलते यौवन को देखकर सबके तन-बदन में आग-सी लग जाती।
उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं लगती...स्वभाव भी...? खैर उन बातों से अब करना क्या, उस पद्मी की तो मृत्यु हो गयी है।
पद्मलता के गुण ग्राहकों की अब कमी कहाँ? यदु लाहिड़ी की पत्नी अपनी धुँधली दृष्टि उस पर डालकर कहती, ''लड़की नहीं, साक्षात लक्ष्मी की मूरत है, बचपन से ही तो देख रही हूँ, गुणों की खान है यह। अहा! माँ का नसीब देखो, ये सब देख नहीं पायी बेचारी पर माँ न सही हम तो जिन्दा हैं, ऐसे ही मिलने आ जाना बेटी। अरे, तू मेरी कमली-विमली से कोई अलग है क्या?''
थोड़ी अलग जरूर है। वह ऐसे कि कमली-विमली भूलकर भी दादी की खबर नहीं लेतीं जब कि पद्मलता ने उनके तीरथ के लिए नक़द तीन सौ रुपये अभी-अभी गिनकर दिये हैं।
राय परिवार से निमन्त्रण आना भी एक यादगार घटना...आज नहीं, इतिहास के पन्नों पर। मुकुन्द राय की माँ का व्रत-उद्यापन या ऐसी ही कोई घटना थी। लाहिड़ी परिवार के सब लोग आमन्त्रित थे। अत: पद्मी की माँ भी बुलवायी गयी थी काम में हाथ बँटाने के लिए। इसी भीड़ में शायद ब्राह्मण-कन्या जानकर परोसनेवाले एक लड़के ने पद्मी को भी अतिथियों की पंक्ति में बैठा दिया था-लड़का और कोई नहीं, सान्याल परिवार का मुरारी जिसका नाम लेकर पड़ोसियों ने उसे बदनाम करने की कोशिश की थी।
स्पष्टवादी सत्यबाला ने तो एक दिन उसकी माँ को रुलाकर छोड़ा था यह कहकर कि कच्ची उम्र में लड़के-लड़कियाँ अगर राह चलते मुलाक़ात होते ही
हँस-हँसकर बातें करें तो फिर शर्म-लिहाज़ नाम की कोई बात रहेगी क्या? यह तो सत्यबाला ने देखा था, कोई और देख लेता तो इस लड़की का ब्याह रचाना कठिन हो जाता।
पर विशेष कठिनाई होती नहीं, हितैषियों की दया से उसी महीने पद्मी का विवाह हो जाता। मैट्रिक पास लड़का किसी अनजाने गाँव में स्कूल मास्टर, तीस रुपये माहवार से भविष्य में सत्तर तक पहुँचने की आशा रखता था। पर यह बात अभी क्यों? आँखों के आगे स्पष्ट घूमने लगता वही दृश्य-किसी ने हाथ पकड़कर उठा लिया था उसे भोजन की पंक्ति से। व्यंग्य, इशारे और सबके चेहरे पर दबी हुई मुस्कान की झलक एक घाव कर गयी थी पद्मलता के दिल पर सदा के लिए। तभी मुकुन्द राय की बड़ी बेटी निभाननी उठ खड़ी हुई थी...हाँ। तर्क अच्छा ही दिया था उसने...ठीक ही तो कहा था, ''अगर ब्राह्मण रसोइये की बेटी को ब्राह्मण-कन्या का मान दिया जाय तो फिर तिलचटा को पक्षी कहने में क्या बुराई है?''
सीढ़ी से ऊपर चढ़ते-चढ़ते आठ वर्ष पहले का अह दृश्य याद आ रहा था...चौंक उठी जब मुकुन्द राय की पुत्रवधू ने हँसकर स्वागत किया, ''आओ ननदजी, कम-से-कम याद तो किया भाभी को, जब से आई हो एक दिन भी तो पाँव नहीं रखे हमारे यहाँ?''
''क्या करूँ भाभी, अभी तो तीन ही दिन हुए, जब से आयी हूँ दिन-रात चक्कर ही तो काट रही हूँ। किसी से ठीक तरह से मिल भी तो नहीं पायी। इधर छुट्टी तो है सिर्फ चार दिनों की।''
''बकवास न करो! इतने साल बाद आकर सिर्फ़ चार दिन रहना? पति को लिख दो इतने दिन उनके पास रही, अब कुछ दिन हमारे पास ही सही। और फिर काम-काजी आदमी ठहरे, उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ जो बीवी के लिए मरे जा रहे हैं।
''देखो न इन्हीं के कारण तो नहीं आ पाती हूँ। बड़े अजीब हैं, छोड़ते ही नहीं।'' पद्मावती के होठों पर एक हल्की-सी हँसी की रेखा सदा अंकित रहती जो इशारे से उसकी धन-सम्पदा का बखान करती।
थोड़ी देर इधर-उधर की बात होने के बाद ही राय-भाभी मुख्य विषयवस्तु पर उतर आती, ''गहने ज्यादा नहीं रख पातीं तन पर, है न ननद जी?''
प्रश्न जटिल सन्देह नहीं, पद्मलता के हल्के-फुल्के थोड़े से गहने उसकी पद्मर्यादा से मेल नहीं खाते। यह बात इन तीन दिनों में पहली बार किसी ने छेड़ी, यही आश्चर्य की बात थी। सिक्कों की झनकार ने सोने की झलक के अभाव को काफ़ी कुछ पूरा कर दिया था शायद।
पद्मलता सन्तोष की हँसी छलकाकर कहती, ''देखो न, तुम्हारे ननदोई ने गहने छीनकर मुझे निकाल दिया है।''
''शिव-शिव! कैसी अशुभ बातें करती हैं।''
''तो मैं क्या करूँ? उनकी धारणा है गाँव में चोर, डकैत और बदमाशों का अड्डा होता है। गहने देखेंगे और लूट लेंगे। कहते हैं रुपये जितने चाहिए ले जाओ मगर गहने एक भी नहीं। ये जो थोड़ी-बहुत पहनी हूँ सुहाग की रक्षा के लिए, बस! हाँ तो क्या कह रही थी? गिरि जुलाहिन अभी भी है भाभी?''
''है क्यों नहीं, कपड़ों का क्या दाम बढ़ा दिया है आजकल।''
''दाम चाहे जो भी हो, पन्द्रह-बीस अच्छी साड़ियाँ मिल जाएँगी?''
''पन्द्रह-बी...स? कौन पहनेगा इतनी साड़ियाँ?'' भाभी की आँखें हैरत से खुली रह जातीं।
''मतलब, अपने लिए थोड़े ही, इतने बरसों बाद आयी हूँ, जाते समय एक-एक साड़ी प्रणाम कर दे जाऊँगी न तुम लोगों को?''
''गाँव भर को?''
''सब तुम्हारा ही आशीर्वाद है भाभी।''
इसके बाद गहनों के बारे में सन्देह का कोई आधार ही नहीं रह जाता। मुकुन्द राय की बड़ी भाभी बड़े जतन से पास बिठाकर खिलाती और उतने कम दिनों के लिए आने का बड़ा अफसोस जताती।
खैर, पद्मलता को अब कोई अफसोस नहीं। यदु लाहिड़ी की ब्राह्मण रसोइये की बेटी 'पद्मी' की स्मृति को मिटाकर सोना पलाशी गाँव में 'पद्मलता' को प्रतिष्ठित कर दिया है उसने। बस-केवल मुरारी। इतनी कसर भी बाक़ी रह जाए क्यों?
वही मुरारी जिसने व्यंग्य से मुस्कुराकर एक दिन कहा था, ''तू क्या समझती है, मैं तुझसे शादी कर लूँगा? सपने देखती रहना। मेरी माँ तेरी आरती नहीं उतारेगी बल्कि झाड़ू मारकर मुझे ही विदा कर देगी।''
बातों-ही-बातों में मुरारी की खबर लेने में अब कैसी शर्म? पूछ बैठती, ''अच्छा राय चाची, मुरारी भैया कैसे हैं? यहीं रहते हैं न?''
राय चाची अफसोस के साथ बोल पड़ती, ''अरे उसके बारे में न ही पूछो तो अच्छा। बीमारी ने उसकी आधी जान ले ली। इधर एक कौड़ी की आमदनी नहीं। बाप-दादा ने एक घर रख छोड़ा था, उसे भी बन्धक दे रखा है। लेकिन बातें आज भी लम्बी-चौड़ी करता है। बीवी-बच्चों का हाल बेहाल है।''
लम्बी-चौड़ी बोली हाँकता है आज भी? बोली बन्द करने की दवा एक बार आजमा कर देख ही ले पद्मलता तो कैसा हो?
बार्लि का कटोरा नीचे रखकर मुँह बिचकाकर मुरारी पत्नी से एक लौंग माँगने जा ही रहा था कि आँगन में पद्मलता प्रविष्ट हुई। इससे पहले कि मुरारी अपने विकृत चेहरे पर एक मुस्कान ओढ़ ले, पद्मलता विस्मित होकर बोल उठी, ''क्या
हो गया तुम्हें? क्या खा रहे हो-साबूदाना?''
दोनों हाथ पलटकर परिहास के स्वर में मुरारी ने कहा, ''हे भगवान! साबूदाना? वह तो इतिहास बन गया है। शुद्ध बार्लि पी रहा था मैं।''
''क्या बीमारी है?''
''बीमारी? एक हो तो बताऊँ, गरीबी, दुश्चिन्ता, महाजन-भीति, दाम्पत्य-कलह, बुखार, डिसपेपसिया...।''
पद्मलता कठोर स्वर में बोली, ''रहने दो, तालिका लम्बी करने की जरूरत नहीं। पत्नी कहाँ है?''
''होगी यहीं कहीं आसपास...''
''बड़े भैया और भाभी?''
''वे लोग? कब के गाँव छोड़ चुके। माँ के देहान्त के बाद ही...''
''तभी से तुम्हारा ये हाल है?''
मुरारी ने एक बार अपनी हड्डी-पसली के बने ढाँचे को निहारकर कहा, ''क्यों, हाल बुरा ही क्या है? हर कोई तो उँगली से फूलकर केले का पेड़ नहीं बन जाता।''
पद्मलता ने तीखे स्वर में प्रतिवाद किया, ''केले का पेड़ तो नहीं पर बेंत ज़रूर बन जाते हैं।''
''दु:ख की बात तो यह है कि अमीरों के मोटे चमड़े पर बेंत का भी कोई असर नहीं होता,'' कहकर मुरारी ज़ोर-जोर से हँसने लगा।
व्यंग्य को अनसुनी कर पद्मलता ने बैठकर कहा, ''खैर, बैठने को तो कहोगे नहीं, खुद ही बैठ जाती हूँ। कहाँ गयी घर की मालकिन, कोई पता नहीं?''
घर की मालकिन व्यस्त थी अपनी दीन-हीन वेश-भूषा को किंचित सभ्यरूप देने में। इस वेश में अतिथि के सामने निकले भी कैसे? दोनों बच्चे भी बाबा आदम के शिष्य होकर घूम रहे थे, उन्हें भी सँवारना आवश्यक था। यह बात पद्मलता भी भली-भाँति समझ रही थी इसीलिए उन्हें और परेशान नहीं किया, मुरारी से ही बातें करने लगी।
''बातें तो आज भी लम्बी-चौड़ी हाँकते हो पर घर का ये क्या हाल बना रखा है?''
''घर? अब पराये घर पर मोह दिखाकर क्या मिलेगा?''
पद्मलता अनजान-सी बनी रही, ''पराया घर? इसका क्या मतलब हुआ?''
''अर्थ बहुत सरल है। आकण्ठ ऋण में डूबा हूँ, घर, ज़मीन सब गिरवी रखी है। क्यों? इतनी मज़ेदार बात अब तक सुनायी नहीं किसी ने?''
''हाय राम! घर गिरवी पड़ा है। क्या कह रहे हो, छि: छि:! पूर्वजों का नाम डुबा दिया।'' पद्मलता जैसे शोक से स्तम्भित हो गयी।
मुरारी ने थोड़ा हँसकर कहा, ''देख, डुबाया था तभी तो तुझे हाँकने का ऐसा मौका मिल गया, लेकिन तेरा ठाठ-बाट देखकर मुझे तो हँसी आ रही है पद्मी। क्या कहा था मुकुन्द राय की बेटी ने? तिलचटा भी पक्षी बन गया। बड़ी अच्छी उपमा दी थी, है न?''
पद्मलता समझ सकती थी कि जान-बूझकर मुरारी उसका अपमान कर रहा था। शायद उसी के किये अपमान का जवाब दे रहा था। ऐसा ही होता है। जब सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं तो उसकी सारी मिठास कड़वाहट में बदल जाती है। तभी शायद लोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतर आते हैं।
मगर नहीं, पद्मलता क्रोध करने नहीं आयी थी।
हँसकर बोली, ''तुम्हारी स्मरण-शक्ति तो बड़ी तेज है। कम-से-कम गाँव का एक आदमी 'पद्मी' को भूला नहीं। जब से आयी हूँ सबने 'पद्मलता' 'पद्मलता' पुकारकर मेहमान बना रखा है। खैर, अपनी खबर सुनाओ।''
''हमारी क्या खबर होगी? हे गोविन्द! भूत का भी कभी जन्मदिन होता है क्या? तेरी ही खबर सुनने लायक होगी, वही बता। सुना है अब बड़ी अमीर हो गयी है, दोनों हाथों से पैसे बरसा रही है, बड़ी अच्छी बात है।''
''अब तक तो मिले नहीं थे, जाना कहाँ से?''
''अरे बाप रे! इन तीन दिनों से तेरी ही महिमा-गाथा सुनते-सुनते कान पक गये मेरे। क्लब का चन्दा, स्कूल का चन्दा, गाँव में चापानल लगेगा-उसका चन्दा, मन्दिर-निर्माण होगा-उसका चन्दा, जैसे लूट मची है। तेरी बेवकूफ़ी पर तरस आता है। पर नाम होना भी कम तो नहीं।''
पद्मलता उपेक्षा-भरी हँसी के साथ बोली, ''मेरा इतना नसीब कहाँ कि कुछ कर सकूँ। मन की कामना पूरी कहाँ कर सकी। जल्दबाज़ी में ज्यादा ला भी नहीं सकी। अपने पास यही कोई एक हजार था और इन्होंने कुछ आठ सौ के लगभग जेब खरचा दिया था। एक आध सौ पहले से ही अपने पास था। इतने से किसका क्या भला हो सकता है। पैसे की तंगी के कारण कमल बुआ की पोती की शादी नहीं हो पा रही है। जब से सुना है कुछ करने के लिए जी मचल रहा है। जाते ही भेज दूँगी उनको।''
''कितने लाख रुपये कमाये हैं अविनाश ने? किस चीज का ठेका लिया था? चावल? गेहूँ? गाय-बकरी या औरत?''
मुरारी की तीखी तलवार जैसी नाक व्यंग्य से और भी टेढ़ी हो गयी, होठों पर कड़वी मुस्कुराहट बिखर गयी।
मगर पद्मलता तो हारने के लिए नहीं आयी, आई है जीतने के लिए। इसलिए चेहरे पर भोलापन दिखाकर बोली, ''मैं क्या जानूँ? तुम भी कमाल करते हो, किस चीज़ का ठेका लिया यह जानकर मुझे क्या करना है? मुझे तो आम खाने से मतलब, पेड़ गिनकर क्या करूँ? जब चाहिए पैसे मिल जायँ, बस। लेकिन तुम्हारी चिन्ता में तो मुझे मरकर भी चैन नहीं मिलेगा। घर तो गिरवी रख दिया, मगर पैसे सधा न सके तो? कितने रुपये में गिरवी रखा?''
''पाँच सौ! क्यों तू देगी क्या?''
''दूँगी क्यों नहीं? इन थोड़े से पैसों के लिए तुम्हारा घर चला जाएगा और मैं देखती रहूँगी?'' पद्मलता आँचल की गिरह खोलने लगी।
''पाँच-सात सौ आजकल साथ लेकर ही घूमती है क्या?''
''क्या करूँ मुरारी भैया, लाहिड़ी नानी इन चन्द रुपयों की ज़िम्मेदारी भी लेना नहीं चाहतीं, जो लायी थी सब लेकर घूमना पड़ता है। पैसे तो खर्च करने के लिए ही होते हैं, सिर्फ लौटने का किराया रह जाए उतना ही काफी है मेरे लिए।
गिनकर सौ के पाँच नोट नीचे रखते ही मुरारी अचानक गुमसुम हो गया। फिर गम्भीर आवाज में बोला, ''देख पद्मी, तिलचटा का चिड़िया बनना फिर भी ठीक है, पर एकदम गरुड़ बनने की कोशिश मत करना।''
''चाहे तुम मेरा लाख अपमान कर लो, ये रुपये तुम्हें रखने ही पड़ेंगे, इन चन्द रुपयों के लिए, तुम्हारा घर हाथ से निकल जाए ये मैं कैसे सहन कर लूँ?''
''मगर तेरे रुपये मैं लूँगा क्यों? बहुत पैसे हो गये क्या तेरे पास? उन पैसों से गाँव के बाकी लोगों को तू खरीद सकती है मगर मेरे सामने मत दिखा ये अहंकार,'' कहकर उसने रुपये हटा दिये और अचानक अपनी पत्नी को सम्बोधित कर चिल्ला उठा, ''कब से एक लौंग माँग रहा हूँ उसका क्या हुआ? सब-के-सब मर गये क्या?''
मुरारी की पत्नी अब तक थोड़ा-बहुत सँवर चुकी थी और बाहर आने ही वाली थी कि पैसों की बातचीत सुनकर रुक गयी थी। अब वह अचानक मंच पर आ गयी और रूखे स्वर में बोली, ''मर जाती तो अच्छा ही होता, तुम्हारे हाथों से तो बच जाती। ऐसा मेरा नसीब कहाँ। ननदजी, जब से आप आयी हैं, रंग-ढंग देख रही हैं न इनके?''
''देखा तो ज़रूर। दिमाग ही खराब हो गया है। ये पैसे उठा लो भाभी, घर छुड़ाना है कि नहीं?''
मुरारी की पत्नी ने सारी बातें सुनी थीं फिर भी लोलुप दृष्टि से रुपयों को देखकर बोली, ''ऐसे आदमी को कोई पैसा उधार देता है भला? जिन्दगी में भी सधा नहीं पाएँगे ननदजी।''
''अरी पगली, सधाने की बात कहाँ से आयी? समझ लो तुम्हारी शादी का तोहफा है बस? लो उठा लो अब। कहाँ छुपा रखा है बच्चों को, अभी तक देखा ही नहीं?''
मुरारी की पत्नी न सौ के सारे नोट झपटकर उठा लिए और प्रफुल्लित स्वर में बच्चों को बुलाने लगी, ''अरे, कहाँ हो सब? बुआजी आयी हैं, प्रणाम करो आकर।''
मुरारी कठोर दृष्टि से पत्नी को इशारे करने की असफल चेष्टा करता रहा। फिर बोला, ''रुपये लौटा दो, मैं नहीं ले सकता।'' मगर घर आयी लक्ष्मी का अपमान करे इतनी मूर्ख नहीं थी उसकी पत्नी। इसीलिए आँचल में बँधी गाँठ पर प्यार से हाथ फेरकर बोली, ''क्यों लौटा दूँगी भला? कल जब बच्चों को लेकर पेड़ के नीचे खड़ा होना पड़ेगा तब क्या होगा? और फिर ननद कोई परायी हैं क्या? क्यों ननदजी?''
पद्मलता इन बातों में न आकर मुरारी के बच्चों की कोमल हथेलियों पर दो-दो रुपये भरने में व्यस्त हो गयी।
नहीं, अब और कोई अफसोस नहीं, कोई अशान्ति नहीं पद्मलता के मन में। इस जीवन में अब और कोई कामना अधूरी नहीं रही। चरम सार्थकता के परम सुख को जैसे अपनी मुट्ठी में भर लिया है उसने।
ठीक इसी समय-छोटे-से अँधेरे कमरे में एक टूटी हुई खाट पर बैठकर पद्मलता का पति अविनाश पत्र लिख रहा था पत्नी के नाम...चार दिन के विरह में ऐसा दीर्घ पत्र? मगर पत्र दीर्घ न हो तो मन की व्याकुलता को प्रकाशित करे कैसे बेचारा! अगले दिन वह आ जाएगी जानते हुए भी लिखे बिना नहीं रहा जाता।
लिख रहा था, ''पद्मा, मैं तो डूब गया। पटना में जिस नौकरी के लिए आवेदन किया था, इस जीवन में उसे तो पाने से रहा। सोचा था यह नौकरी लग जाएगी तो बाक़ी की जिन्दगी चैन से कट जाएगी। मगर विधाता को यह मंजूर नहीं। अपना घर-बार सब बन्धक देकर सिक्योरिटी के पैसे जुटाये थे, वो दो हज़ार रुपये खो गये।...तुम्हें तो पता है चोरों की नज़र से बचाने के लिए बक्से में न रखकर रजाई के गिलाफ के अन्दर छिपाकर रखे थे, मगर वहाँ भी चोर की नज़र कैसे पड़ गयी पता नहीं।
...यह मेरे किसी दुश्मन का काम है। किससे क्या कहूँ, मैं तो आज लुट गया हूँ। भविष्य में भी कोई किरण दिखाई नहीं पड़ती। शायद अपना पुश्तैनी घर-बार बेचने का ही दण्ड मिला मुझे। अफसोस हो रहा है, ऐसे समय में तुम भी दूर चली गयीं। तुम घर की लक्ष्मी हो, शायद तुम रहतीं तो ऐसा न होता। खैर जल्दी आना। मेरी अवस्था आने लायक़ नहीं है। तुम्हें मुँह दिखाने में भी शर्म आ रही है।''
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