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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

13

बात भी ठीक थी। तीन घर क्यों? छत से टपक कर पाँच-सात घर तक जाना भी उत्तर कलकत्ता के कई मोहल्लों में चालू था। महिलाओं का वही पार्क हुआ करता। जहाँ वे बेलफूल, लैवेन्डर आदि बनातीं है। (सहेलियाँ) बड़ियाँ, अचार, बिस्तर, तकिये-दूत घर के उस घर 'के छत में सूखने दिये जाते।

अभिभावकों की कड़ी दृष्टि थी नहीं तो पूर्वराग का यही उत्कृष्ट पथ था। क्या? बचपन में ब्याही जाने कातिल की? कितनी जल्दी? शैवलिनी की उस से पहले तो नहीं?

शैवलिनी की कितनी उम्र थी? वह प्रसंग रहने भी दें तो त्रयोदशी ललिता युगल ने तो महफिल गुलजार करके रखी थी-परिणीता की ललिता, गोरा की ललिता। और इस युग की टीनएजर किशोरियों) चुइंगम चबाते-चबाते या फाइव स्टार चूसते-चूसते ललित कटाक्ष से विद्ध नहीं करती? साड़ी ना पहनने से क्या उस ' का रोग नहीं लगता?

इसी कारण' जल्दी शादी होने के बावजूद पूर्व प्रेम का चलन तब भी था। छत-छत से गमानागमन की सुविधा से उत्तर कलकत्ता में इसका चलन ज्यादा था।

दलूमौसी के हृदय में वही सोने जैसा कलकत्ता ही बसा था।

कृष्णभामिनी देवी के मंगल साधन रूपी, अनुग्रह को दलूमौसी ने मनप्राण से ग्रहण किया, उन्हें तो जैसे हाथ मे चाँद मिल गया। तब तक दलूमौसी को यह ना पता था कि इस अलौकिक स्वर्ण संजोग रूपी मसृण सीढ़ी से स्वयं चन्द्र देवता आकाश से उतर कर उसका हाथ पकड़ेगें?

या स्नेहमयी कृष्णभाविनी ने भी क्या सपने में यह सोचा होगा कि उनके इस भ्रमात्मक व्यवस्था के पथ से लोहे के किले मै राजपुत्र दाखिल हो जायेगा?

कृष्णभामिनी का देवर का दामाद अनन्त किताब का प्रेमी था तो भाई उचित किताबों के पीछे पागल था?

किताबें खरीद कर अल्मारी भर गयी पर और ज्यादा किताबों के लिए अल्मारी की खोज जारी थी।

बाप ना थे, माँ थी। उनका परिवार चार बेटों से था। गोदी का लड़का ही अविवाहित था। माँ की निगरानी में था। पैसे माँ के पास ही थे। वह भी अचिन्त को काफी भारी रकम हाथ खर्च दिया करती। यह भी कहती कि सारा पैसा किताबें ही खरीद कर जाया कर रहा है। कुछ अपने शौक की खातिर भी तो खर्चना चाहिए।

लड़के का जबाव होता-माँ मेरा यही शौक है यही विलास है।

फिर हीरा हीरे को नहीं पहचानेगा? लोहा और चुम्बक क्या आसपास रहकर भी नहीं मिलते?

शुरू-शुरु में तो दलूमौसी पूँटी की कथा बड़े विस्तार से सुनातीं थी-ओह एक चीज है पूंटी। पता है दो-तीन पन्ने सुनकर कहती है, मुझे

जम्हाई आ रही है और पाँच-सात पन्नों के बाद तो उसका सिर घूमने लगता है। ही-ही-ही- कहती है नंनद जी। जरा आँखें बन्द कर लो मैं भी सो लूँ-दलू ननद जी।

चिनूमौसी, कचिमौसी, तरुदी हुम सब हँसते। हाँ सोती है?

हाँ खर्राटे मार कर।

और तू?

मैं और क्या? निश्चिन्त होकर किताबें पढ़ती हूँ। कितनी किताबें हैं वहाँ। मुझे तो नया जीवन मिल गया है। कितने सारे जिल्द में बँधे ग्रन्थावली, मासिक पत्रिकायें, नई-नई जितनी भी किताबें निकल रही है। सब हैं। लगता है वहीं पड़ी रहूँ।

चिनूमौसी टेढ़ी मुस्कान भरकर बोली-आहा रे घर के पास ऐसा कर था। कहाँ की पूंटी ने आकर लूट लिया। अनन्त से ब्याह होता तो तू भी उस किताबों वाले घर में रह सकती थी।

अनन्त के बारे में ही सोचा जो बी०ए०, एल०एल०बी० पास और वकालत शुरू किया था–पात्र तो सोने जैसा था।

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