नई पुस्तकें >> काल का प्रहार काल का प्रहारआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास
19
यह लोग गये थे इन्हीं से परिचय हो पाया। बाकी तो अनदेखे रह गये। छोटे बड़े हो गये। बड़े बूढ़े हो गये। कुछ भर भी गये हैं। कोई लड़की तो कोई लड़के के यहाँ है। जो हैं वो कहाँ छुपकर बैठे हैं, एकबार झांकने भी नहीं आते। हमारे जमाने में ऐसा होता तो बुआ उसकी नाक कटवा देतीं। घर में कोई आने से प्रणाम करने भी नहीं आयेंगे? मिलने नहीं आयेंगे? इंसान क्या पशु है किसी का साथ नहीं रखेगा। वह सब शिक्षा से होता है। क्या कहती है?
बोलती क्या? पचास बरस बाद आकर अगर दलूमौसी अपने (समय) के दर्शन करना चाह रही है, उसे क्या कहें? क्या कहें कि समय ठहरा नहीं समय तो आगे बढ़ गया पर दलूमौसी वही की वही हैं। पर दलूनैसी तो हर पल पूछती है।
हाँ री! सुबह होने पर रास्ते के बल्ब बुझाये नहीं जाते। दिन भर जलते रहते हैं। हाँ अब क्या सुबह सड़क पर पानी नहीं डाला जाता? भोर से छत पर टहल रही हूँ एक बार भी नहीं देखा। पहले तो घड़ी के कांटे के हिसाब से भोर छह बजे-
प्रबुद्ध की लड़की भी इसी बुढ़िया से वृन्दावन में मिल आई थी। वह बोली, वह शौकीनी, सुक्ष्मता आज कल नहीं है दादी। घड़ी के कांटे के हिसाब से सड़क पर पानी डालना, रोशनी बुझाना, इतना नहीं होता। करने के लिए बड़े-बड़े काम पड़े हैं।
दलूमौसी ने पोती का टाइट पैन्ट, तंग बनियान वाला सुगठित शरीर देखकर धिक्कार के स्वर में कहा-हाँ पहाड़ इकट्ठा करना, पोखर बनाना, घर तोड़ना, बड़े रास्तों का नाम बदलनी इतने सारे कार्यों के चलते अपना समय बेकार के काम में काहे को लगायेंगे?
आपको इतनी खबरों का पता है? आकर ही जाना।
तुम लोग आजकल साड़ी नहीं पहनतीं? साड़ी। ही ही। साड़ी पहन . कर चल सकते हैं? ओ। चलना मुश्किल है।
पोती की माँ को देखकर पूछा-कितनी कक्षा में है, पार्ट टू-बी०ए० की परीक्षा देगी।
बी०ए०, का एक्जाम देगी वह साड़ी पहन कर चली नहीं पायेगी। कलकत्ते की सड़कों का जितना भी पतन हों पर इस घर ने काफी प्रगति कर ली है। बूढ़े की बीवी जब अकेली अमेरिका जा सकी तो और किसकी बात कहें?
प्रबुद्ध की बेटी, बहू दोनों का चेहरा लाल हो रहा था, बूढ़े की
प्रसंग से यह हल्का हो गया।
लाली बिल्कुल ही गायब करना ही मगलमय है। साँप की पूँछ पर पैर रखना भी तो समीचीन नहीं है। पता नहीं कब फन उठा दे।
मैं जल्दी से बोली-वही क्यो सबसे सादा कहर नये दादा की पोती यानि चिनिमौसी की बेटी, नये दादा के रहते ही डॉक्टरी पढने विलायत चली गई। सुना है वही नौकरी पाकर रहने लगी है। और कितनी प्रगति देखेगी इस घर में-
प्रबुद्ध पत्नी भी मेरे वक्तव्य से. प्रोत्साहन पाकर बोली-बुआजी समय तो बदलेगा ही। युग का नियम ही है परिवर्तित होते रहना।
थोडी देर के बाद मेरी वही पोती जो सबको तंग करती रहती थी उदभ्रान्त अवस्था मे उपस्थित हुई। वह बोली-घर मे तुम्हे ना देखकर यहाँ दौडी चली आई। चल रही हो तो मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है इस वक्त।
मैंने भी बड़े ही व्यग्रता से जवाब दिया, पागल हो गई है? कितने जमाने के नाद मामा के घर आई हूँ-रहुँगी अभी तो।
वाह। तुम यहाँ बैठकर मामा के पर का प्यार उपभोग करो और वह मेरी जीवन मरण की समस्या आन खड़ी है।
मैंने धीमे से कहा, तेरी तो सप्त में तीन बार ऐसी जीवन मरण की समस्या आती है-सव ठीक हो जायेगा। तू एक और किसी का पकड़ाव कर जा के।
उसने जरा सन्देहात्मक दृष्टि अखबार पढ़ने मे लीन दलूमौसी पर डाली फिर धीमे स्वर से बोली, अरे बाबा। अब का मामला अलग है।
अलग कैसे माना। कहीं रजिस्ट्री वगैरह करके तो नहीं बैठी है? मैंने डरते-डरते पूछा।
धत् क्या कहती हो? मुझे क्या इतना कच्चा समझा हे। असल मामला-फिर पेपर की ओर सन्देह और पशोपेशी में भर कर निहारने लगी।
मैंने हँसी थमा कर कहा उससे शर्माने की जरूरत नही है यह तेरी परिचित हैं।
कैसे परिचित?
तब दलूमौसी ने सामने से पेपर हटा कर चश्मा खोलकर पोंछना शुरू कर दिया।
मैं बोली-यही तो है मेरी हमेशा की प्रिय सहेली बग्लौसी ऑ। (दिल जलाने वाली) मैं उस मोती को इसी नाम से बुलाती थी-तब तक खडी थी यह सुनकर धप से सोफे पर बैठ गई।
नीली-वहीं काव्यमलिका?
हाँ वही।
दलूमौसी ने भौंहे तिरछी करके प्रश्न छोड़ा-यह कौन है? गड़े मुर्दे निकालने के लिए क्या, अचानक इसके सामने कब्र खोदने बैठ गई?
कब्र नहीं खोद रही। बहुत पहले ही कब्र खोद डाली थी। अभी तो सिर्फ लाश के साथ उसका परिचय करवा रही थी।
यह क्या दादी? लाश-मृतशरीर-डेडवोंडी यह सब क्या? ऐसे कहते है?
मैं सत्य ही तो कह रही हूँ भाई।
उस पोती ने दलूमौसी को ऊपर से नीचे निहार करके कहा-तुम लोग जो कहावत कहती हो मरा हाथी भी लाख रुपये का-चेहरा देखकर यही लग रहा है-कभी इन खण्डहरों में भी महल हुआ करते थे। कवि थी-और प्रेम भी किया है।
दलूमौसी हँस पड़ीं-कहाँ से मिली यह तुझे? लगता है कि वर्तमान समय की यही तेरी प्रिय सहेली बन गई है।
दिलजलाने वाली बोली-मैं उनकी हूँ या नहीं पर यह मेरी हमराज है तभी तो विपदा में इन्हीं की शरण में दौड़ी चली आई।
मैं बोली तेरी विपदा इसके समक्ष भी बयान कर सकती है। कहती हो।
हाँ।
दलूमौसी ने कहा मैं तब तक उस कमरे में चली जाती हूँ। उस दिलजलाने वाली ने अभयदान देकर कहा-जाने की जरूरत नहीं हैं। आपकी काव्यमालिका मैंने पढ़ ली है। हालांकि अभी तो आपको देखकर-क्या किया जा सकता है- काल का कहर ! पर यह तो कहना ही पड़ेगा कि उस समय में-आप लोगों के उस कट्टर सनातन परिवार में भी आपने एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया था-वो दादी-
पिंजरे का पंछी पंखों को फरफरा कर नीले आकाश को दो अंखियों से निहारे रहता।
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