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काल का प्रहार

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15412
आईएसबीएन :000

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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास

2

जिस कलकत्ते में आधी रात के वक्त भी चाहने पर जो चाहो मिलता था। कहते हैं बाघ को दूध भी मिलता था। हालांकि यह उपमा के तौर पर ही प्रयोग किया जाता था। पर कहीं ना कहीं तो इसकी सच्चाई होगी ही। शून्य पर तो प्रासाद का निर्माण नहीं होता। उसकी नींव अवश्य रहती हैं। हालांकि इसके अनुरूप कौड़ी की भी जरूरत पड़ती है। उस वक्त के लोग जो अभी तक जिन्दा हैं अगर उनसे पूछा जाये तो बात की सत्यता साबित हो सकती हैं।

पर सब करने की आवश्यकता ही क्या है? शास्त्र में लिखा है-किसी भी अविश्वास्य घटना को प्रत्यक्ष रूप से देख कर भी किसी से ना कहो नहीं तो हँसी के पात्र बनना पड़ जायेगा।

मैं उस जमाने में पली हूँ, शास्त्र में भी विश्वास रखती हूँ। तभी तो साक्षी के लिए किसी का सहारा नहीं लेती। जिस काल में पैसे की गंगा बहा कर भी गाय का दूध मिलना मुश्किल है वहाँ बाघ का दूध वाला प्रसंग उत्थापन ना करने में ही समझदारी है। अगर कहें तो सब ही-ही कर हँस देंगे। इसके अलावा उस कलकत्ते के साथ इस कलकत्ता यानि वर्तमान कलकत्ता की तुलनात्मक समालोचना करना मेरे बस के बाहर है।

ऐसे ही तो हमारी प्रिय पोतियाँ हमारे समय को अवज्ञा, निरादर या करुणा की नजर से देखती हैं। और हम पर भी करुणा दृष्टि रहती है। यह सब हमसे छिपा भी नहीं है। हाँ जानकर भी अनजान का भाव जाहिर करते हैं। किसी प्रकार के तर्क में भी नहीं जाते। यह भी प्रकाश नहीं करते कि हमें तुम्हें और तुम्हारे जमाने को देखकर वही मनोभावना जागती है–यानि अवज्ञा, अनुकम्पा या करुणा की।

हमारा काल-यानि युग-समय जिसके साथ दलूमौसी बड़ी ही गहरे पन से पैढी है।

मेरी एक पोती जो मेरी भक्त है (शायद अपने कर्मफल से भक्ति अर्जन की क्षमता प्राप्त कर ली है) वह एक बार बड़े ही. अफसोस से बोली, 'तुम्हारे समय के बारे में सोचने से तरस आता है-पूरी तौर से नजरबन्द पिटारे में कैद-साधारण या मामूली-सा प्यार या किसी प्रिय व्यक्ति को देखने तक का भी हुक्म नहीं था। आहा बिचारी।

'प्रेम, तो उनके लिए एक मामूली घटना है। वे तो उसे जीवन मरण का विषयं नहीं समझतीं। जरूर मिलता है। जब वह किसी प्रेम प्रसंग का वर्णन करती है तो उसका चेहरा खुशी से झिलमिला जाता है। सुन्दर चेहरा लावण्यमय, खिला-खिला-सा हो जाता है। जब वह प्रेम असफल होता है तो थोड़ी-सी निराशा, चेहरा विषादमय, और मुँह से पूरी पुरुष जाति के प्रति घृणा धिक्कार, अभिशाप का प्रबल आक्रोश वर्णन होता है।

इसके बाद फिर से खुशी की चकाचौंध यह तो जैसे ऋतुओं का आवागमन होता है-एक के बाद एक ऋतु अपने चक्र से आते और चले जाते हैं।

'मैं बेचारी' बैठी-बैठी देखती रहती हूँ। दलूमौसी की तरह सीधे वाक्य वाणों से उसे जर्जरित नहीं करती।

दलूमौसी की हिम्मत इस कारण भी कायम थी-क्योंकि वह पचास सालों के बाद कलकत्ता आई थीं। तभी वह बर्तमान हालातों से नावाफिक थीं।

अब इस कलकत्ता में नहीं रहना।–कहकर उन्होंने जो कलकत्ता त्यागा, तब से वह वृन्दावन में ही थी। आज अचानक-

ओह ! उस दिन उनकी इस घोषणा से किसका क्या हुआ पता नहीं पर मेरे तो दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। उस काल की रूपसी, गुणवती दलू मौसी जिसके अनेकों भक्त थे उनमें से सर्वोच्च स्थान मेरा ही था।

दलूमौसी का काव्यप्रेम देखकर ही तो मेरे मन में कहानी लिखने की भावना का उद्रेक हुआ था। कहानी के अलावा और क्या कर सकती थी-काव्य रचना करना तो आसान काम नहीं था।

जब दलूमौसी अनायास ही शब्दों को मिला-मिला कर पद्य रचती तब, मेरे अन्दर दु:ख, सुख दोनों प्रकार के भावों का टकराव उत्पन्न होता। जिससे हृदय में कम्पन पैदा हो जाया करता था। पर अपनी कविता को पद्य कहानी सुनकर दलूमौसी क्रोधित हो जाती थी। कहतीं-पद्य क्यों कहते हो? कविता कहो। पद्य और कविता अलग-अलग है। आकाश-पाताल का भेद है। हम समझने का भान तो करते पर आकाश-पाताल सोच कर भी किनारा ना ढूढ़ पाते। तब समझने की बेकार कोशिश ना कर, अपनी छुपाई कहानियों को गोपनीय स्थान से निकाल आगे लिखने बैठ जाया करती थी।

(जो क्रम अब तक जारी है)। बड़े ही संगोपन से लिखती जिससे किसी की नजर ना पड़े। पर दलूमौसी से छिपाना तो सम्भव ना था। अगर वह ना देख लेतीं तो मेरी लिखने की चेष्टा ही विफल थी।

द्रलूमौसी भी मुझे अपनी कविता की पहली पाठिका का सम्मान देती थीं। बाकी जो हम उम्र थे उनको भी दिखाती, जिससे वे नाराज ना हों। दलूमौसी उनके पीछे कहती समझते तो खाक हैं, दिखाने के लिए तंग करते हैं। अगर ना दिखाती तो या तो मान मनोबल करते समझते उनका अपमान हो रहा है। या क्रोधवश पर्दा उठा देते। तब-

हाँ दलूमौसी फांसी की आसामी की तरह हमेशा पकड़े जाने के भय से भयभीत रहती। उनकी -रचना आतंक के माहौल में ही पोषित हो रही थी। (मन में पद्य ही कहती) मन में पद्य को कविता कहने की ऐसी क्या जरूरत है। चावल तो चावल है अन्न कह कर पुकारने से क्या उसका स्वाद बदल जायेगा? मेरा गद्य रचना र्निभीक, निडर भाव से आगे बढ़ती चली जा रही थी।

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