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समय 25 से 52 का

दीपक मालवीय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15416
आईएसबीएन :978-1-61301-664-0

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युवकों हेतु मार्गदर्शिका

16

वक्त के सिखाने से पहले सीखें


दोस्तों ! अब जो आप अध्याय पढ़ने जा रहे हो, उक्त पुस्तक का वो तथ्य भी जरूरी है आपकी मंजिल प्राप्ति में, अपने अविराम लक्ष्य तक पहुँचने के लिये ‘आपको वक्त की मार से बचना है।’ प्रगति के इस सुनहरे पथ पर वक्त के दानव रूप से बचना है। क्योंकि वक्त जिसको मारता है सब कुछ तोड़ कर रख देता है। और जिन्दगी में हम यदि दिये हुए निश्चित वक्त पर कुछ न सीखे तो ये बड़ी क्रूरता से, अपने तरीके से सब कुछ सिखाता है। वक्त एक निश्चित समय में सबको कुछ न कुछ मात्रा में सिखाता ही है। उससे पहले ये प्रकृति हमको एक माता की तरह लालन पालन करके बखूबी समय देती है कुछ करने के लिये-सीखने के लिये।

इस धरती पर कोई भी सामाजिक प्राणी ये दावा नहीं कर सकता कि जिन्दगी ने उसे पहले कभी मौके नहीं फरमाए। कई मौके अदा करती है जिन्दगी हमें और किस्मत कम से कम हमें कुछ और न दे पर सीखने का पर्याप्त समय जरूर देती है। और किस्मत सिर्फ मौके ही दे सकती है, उसे बखूबी पहचान कर सही समय पर आँख खोल कर हमें ही सूझ-बूझ से समझना होता है। अन्यथा हमने मौके पहचानने की आदत नहीं बनाई तो जीवन का हर वो पल हम खो देंगे, जब हम अपने मन में किसी अदभुत सफलता का बीज बो सकते थे। ये वक्त शुरू में कोमल स्वभाव का हेता है जो हमें किसी से भी, घर में या बाहर से कुछ सीखने का या प्रेरित करने का अवसर प्रदान करता है। और बाद में फिर उग्र रूप धारण करके हमें मानसिक, भौतिक, सामाजिक, आर्थिक यातनाएं देकर सिखाता है। अलग-अलग मानसिक प्रवृत्ति वाले लोगों को ये अलग-अलग तरीके से सिखाता है। किसी को ज्यादा तकलीफ पहुँचाकर, किसी को कम तकलीफ पहुँचाकर। थोड़े-बहुत समय में जैसे-तैसे ये सब कुछ सिखा सकता है। अगर इसकी तुलना हम अपने पहले के समय से करें तो पाऐंगे कि बाद का जैसा-तैसा सीखा हुआ हमारे कार्यक्षेत्र में, जीवन में उतना कारगर सिद्ध नहीं होता, जितना कि पहले वाला सीखा हुआ। क्योंकि ये लोगों को वक्त की मार के चलते सीखना पड़ता है।  वर्ना मजबूरी की कटार परिस्थिति के पार हो जाया करती है।

युवा पीढ़ी के बढ़ते जमाने में बढ़ते द्वेष के चलते, कुछ लोगों के चित्त में ये घमण्ड रहता है कि हम तुमसे क्यूँ सीखें, तुम्हारे सामने हम झुक जाएंगे तो हमारे द्वारा तुम महान बन जाओगे। तुम्हारा हम पे कैसा जोर, अपने मन में ये लोभ का चश्मा चढ़ाकर ये नहीं जान पाते कि कुँए में जब बाल्टी जाती है और झुकती है तो ही कुछ हासिल कर पाती है। अन्यथा अकड़ में जाएगी तो अंत में अपनी अकड़ के सिवाए कुछ नहीं पाएगी। कभी-कभी तो भगवान भी भक्त के आगे झुक जाते हैं। पर हम लोग किसी अन्य के आगे नहीं झुकते और इनकी सबसे बड़ी खामी ये है कि ये किसी और क्या, ‘अपने ही घर वाले, माँ-बाप, भाई-बहन से कुछ नहीं सीखते, स्कूल में ये गुरू से नहीं सीखते और अपने प्रगाढ़ मित्र से भी सीखने में इन्हें लज्जा होती है।’ शहरों की युवा पीढ़ी में बढ़ते मोबाइल के चलन के कारण इन्हें उनका ही ज्ञान व्यर्थ लगता है, जिनको तुम्हारे पैदा होते ही तुम्हारे जीवन की चिन्ता होने लगती है।

आज हर लड़का-लड़की इन्टरनेट को अपना गुरू मानता है और उसकी गुरू दक्षिणा में अपनों के अरमान और फिक्र को भेंट चढ़ा देता है। इन्टरनेट एक आधा सच है बाकी का काल्पनिक है। इसी से सब कुछ सीख सकते हैं, इसी से एक अच्छा खिलाड़ी, छात्र, व्यापारी बन सकते हैं तो वो लोग कैसे महान बन गये, जिनका उदाहरण इस किताब में भरा पड़ा है। हमारे आध्यात्मिक गुरू ऋषि वाल्मीकि, भगीरथ ने इतना पंचकूल गुण कहाँ से प्राप्त किया था जब इन्टरनेट नहीं हुआ करता था तो। एक बार अपने सामर्थ्य से उनकी कल्पना तो करें। आपको आश्चर्य होगा कि कैसी-कैसी विकट परिस्थिति में कड़ी मेहनत करके, कम सुविधाओं में भी वे हमेशा सफलता के शीर्ष पर पहुँचे हैं। उन्होंने अपने हर लक्ष्य को, रुकावटों को भेदते हुए प्राप्त किया है। स्वामी विवेकानन्द जी ने इतना ज्ञान प्राप्त किया था, कौन से मोबाइल से? उनके गुरू ने उन्हें इतिहास बनाने के काबिल बनाया, दुनिया में युवा शक्ति का प्रचार किया, किस इन्टरनेट के माध्यम से किया।

प्यारे बेचैनियों, सच्चे उम्मीदार्थियों ! आपको किसी के सामने धन के लिये या खाने के लिये थोड़े ही झुकने को बोला जाता है। सीखने वाला कितना ही बड़ा सिकन्दर क्यों न हो उसे सीखने के लिये चरणों में नीचे बैठना ही पड़ता है। अपने घमण्ड और लोभ को छोड़ कर पैरों में झुकना ही पड़ता है। तब ही कुछ हासिल कर पाओगे और दुनिया में जाने जाओगे। हमारी सामाजिक नीति भी यही कहती है कि विनम्र बनिए-झुकिए, अकड़ तो मुर्दे का परिचय देती है। और आध्यात्मिक जगत का भी यही मत है।

युवा पीढ़ी के आज बदलते चलन में ये तक हो रहा है कि लोग किसी के सामने पैसों के लिये, खाने के लिये आसानी से झुक जाते हैं । पर ये लोग अगर पहले ही विनम्रता से उन लोगों के आगे झुक जाते जो तुम्हें हमेशा कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं तो आज इन मतलबी लोगों के सामने नहीं झुकना पड़ता और तुम जो इन लोगों के सामने झुक जाते हो उसी के चर्चे वो लोग पूरे समाज में और बाजार में किया करते हैं और यथा सम्भव तुम्हारी मानहानि किया करते हैं।

तो दोस्तों ! हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहिए, जिन्दगी के जर्रे-जर्रे से, छोटे से-बड़े से, जीव-जन्तु से, निर्जीव वस्तु से, इन ऊँचे-ऊँचे पर्वत पहाड़ों से, कल-कल बहती नदियों से, अंकुरण में फूटे उस बीज से, लहलहाती फसलों से, सर्दी-गर्मी से, जमीन आसमान से। हमारे मंगलयान-चन्द्रयान से, कलाम-बापू से, गाँधी-गोविन्द से कुछ न कुछ सीखते रहिए। न कि हथेली पर मोबाइल थाम के, आँखों की पुतलियों को कमजोर कीजिए। प्राकृतिक अंगों को संभाल कर रखिए, नहीं तो आगे कुछ सीख नहीं पाएंगे।

आपको एक चौंकाने वाली बात बताना चाहता हूँ यहाँ जो आपको भी असमंजस में डाल देगी। हमारी युवा पीढ़ी आज रात-दिन, सुबह-शाम इन्टरनेट के माध्यम से कुछ न कुछ खोजती ही रहती है। जबकि कुछ लोगों ने बिना इन्टरनेट के ही ‘ग्रैविटी’ को खोज लिया था, बिना इन्टरनेट के ही जीरो की खोज कर ली थी। बिना इन्टरनेट के दशमलव की खोज कर ली थी, और तो और बिना इन्टरनेट के ही इन्टरनेट की खोज कर ली थी। उस जमाने में जब प्राकृतिक संसाधन भी कम हुआ करते थे। पर आज पता नहीं क्या हो गया है कि दिन भर घंटों इन्टरनेट के इस्तेमाल से भी कुछ नहीं हो पा रहा है इनका।

इन्टरनेट से लेखक को कोई खास दिक्कत नहीं है। न ही मैं विरोध करता हूँ इन्टरनेट का। मुझे तो बम और बारूद से भी कोई दिक्कत नहीं है। हमारी रक्षा और फायदे के लिये बनाए गये हैं, तो ये तो फिर इन्टरनेट है। पर इनका गलत इस्तेमाल भी तो बहुत हो रहा है। दुरुपयोग भी बहुत हो रहा है युवा पीढ़ी में। इसलिए लेखक का फर्ज बनता है कि आपको इसके बारे में चेताए। कोई भी वस्तु का उपभोग सीमित मात्रा में अच्छा लगता है क्योंकि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’। जैसे इन्टरनेट का उपयोग छोटे-मोटे बिल रिचार्ज करने में, रेलगाड़ी का टाइम इत्यादि देखने में ठीक है वर्ना इसकी अति घातक होगी, शारिरिक और मानसिक दृष्टि से भी।

जैसे समय पर हम कुछ चीजें नहीं सीखते हैं तो समय अपने तरीके से सिखाता है परन्तु कभी-कभी ये काम यमराज महाशय को भी करना पड़ता है। जो लोग किसी के समझाने पर भी, घर वालों के बताने पर भी खान पान की आदतें नहीं बदलते, दैनिक दिनचर्या का तरीका नहीं बदलते, फिर यमराज उन्हें अपनी इच्छा से सिखाते हैं सब कुछ।

जब हम कुछ बातें मजबूरी के आलम में वक्त की मार से सीखते हैं तो उसकी खराब अनुभूति ठीक वैसी ही होती है जैसे कि वेन्टिलेटर पर लेटे हुए व्यक्ति को लगता है। उसे वहाँ जा के पल-पल की कीमत समझ आती है। हर एक साँस अनमोल है, हर क्षण खास है जिन्दगी का, उसे फिर समझ आता है कि पहले ही पल-पल की कीमत समझ लेता तो यहाँ हर एक साँस के हजारों रुपए नहीं देना पड़ता।

प्यारे उम्मीदार्थियों ! अंत में भी आपको ये ही सलाह देना चाहूँगा कि जिन्दगी में और विशेषकर अपनी मंजिल के सफर में तो कोई भी गुण वक्त के सिखाने से पहले ही सीख लेना वर्ना वक्त जब सिखाता है तो अच्छे-अच्छे संकल्प की जड़ें कमजोर कर देता है और कमर तोड़ देता है कमर कसने वालों की और वक्त हमें कुछ सिखाता भी है तो वो चालू तरीके से कामचलाऊ होता है, न कि जिन्दगी भर के सबक के लिये।

इस धरती के बड़े से बड़े सूरमा डरते थे वक्त की मार से क्योंकि वो जानते थे कि ईश्वर के दिये हुए मौकों को हम नहीं पहचाने तो बाद में सर्वदा-सर्वत्र हार ही हार है इस जमाने में। आत्मा असंतृप्त रह जाएगी इस कर्मभूमि पे। इसलिए हर छोटी-छोटी बातों से, साधरण चीजों से मौके को पैदा कीजिए। उनसे मिलने वाले फायदों को समझिए हो सकता है कब कौन सी सीख, मौका या अवसर हमें हमारी मंजिल से मिला दे या सपनों को पूरा कर दे।

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लोगों की राय

Deepak Malviya

Nice beginning