नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
राम का न्याय
एक बार की बात है रामभक्त विभीषण ब्राह्मणों के एक आश्रम में जा पहुँचे। विभीषण भले ही रामभक्त हों, किन्तु थे तो राक्षसकुल उत्पन्न ही। उनके भयावने रूप को देख कर किसके मन में भय न समाता होगा? विभीषण ने आश्रमवासियों के साथ अभद्र व्यवहार भी किया।
आश्रमवासियों ने बड़ी युक्ति से विभीषण को घेरा और उनको बन्दी बना कर आश्रम के नीचे के खण्ड में डाल दिया। ब्राह्मण समुदाय को विदित नहीं था कि जिसे उन्होंने बन्दी बनाया है, वह रामभक्तविभीषण हैं।
समाचार किसी प्रकार राजाधिराज रामचन्द्र महाराज तक पहुँच गया। राम का विभीषण पर बड़ा स्नेह था। विभीषण भी परम रामभक्त थे, इसमें कोई सन्देह नहीं था।
राम को जब यह विदित हुआ कि विभीषण को किसी ने बन्दी बना लिया है तो उन्होंने उनकी खोज में इधर-उधर अपने दूतों को भेजा। बड़ी कठिनाई से उनकापता चल पाया। मामला ब्राह्मण समाज से सम्बन्धित था।राम के मन में इस समाज के प्रति बड़ा मान का भाव था। उन्होंने उनके पास किसी मन्त्री आदि को न भेज कर स्वयं जाने का निश्चय किया जिससे कि वे विभीषण को कारा से मुक्त करा सकें।
राम को आश्रम में आया देख ब्राह्मणों ने उनका स्वागत-सत्कार किया। ब्राह्मणों को राम के आने के कारण के विषय में कुछ ज्ञात नहीं था। वे इसे एक आकस्मिक घटना समझ रहे थे। ब्राह्मणों ने राम से स्वयं ही निवेदन किया, "महाराज! हमारे आश्रम के समीप के वन में कोई राक्षस रथ पर सवार होकर आया था। उसने हमारे एक मौनव्रत वृद्ध पुरुष को न केवल अपमानित किया अपितु उनको लात भी मारी। वे अत्यन्त वृद्ध थे, राक्षस का प्रहार नहीं सह सके, वहीं पर गिर कर उन्होंने प्राण त्याग दिये।
"हम लोगों को जब समाचार मिला तो हम वहाँ पर गये और हमने उस राक्षसको पकड़ कर बन्दी बना लिया है। उसको यातना भी दी गयी है, किन्तु वह तो राक्षस है, उस पर हमारे प्रहार का कोई प्रभाव नहीं होता। यह हमारे परम सौभाग्य की बात है कि इस संकट की घड़ी में आप स्वयं यहाँ पर पधारे हैं। अब दुष्ट को ब्रह्महत्या और वृद्धहत्या का दण्ड आप ही दीजिए।"
इतना कह कर वृद्ध ब्राह्मण ने दो-तीन नवयुवक ब्राह्मणों को आदेश दिया कि वे राक्षस को पकड़कर महाराज के सम्मुख ले आयें। ब्राह्मण गये और विभीषण को लाकर महाराज के सम्मुख उपस्थित कर दिया।
भगवान राम को सम्मुख देख कर विभीषण अपने को बड़ा लज्जित-सा अनुभव करने लगे। वह सोचने लगे कि भगवान को उनके अपराध का ज्ञान हो गया है, अब वे उस पर पूर्ववत् कृपा भाव नहीं रखेंगे।
उधर भगवान राम स्वयं उससे भी अधिक लज्जा का अनुभव कर रहे थे। वे समझ रहे थे कि अपराध विभीषण से नहीं स्वयं उनसे हुआ है। उन्होंने विनम्र वाणी में ब्राह्मण समाज से निवेदन किया, "ब्रह्म देवता! यदि किसी का सेवक कोई अपराध करे तो वह अपराध उस स्वामी का ही माना जाता है। आप लोग विभीषण को छोड़ दीजिए, क्योंकि मैंने उनको जीवित रहने का वरदान किया है। इसलिए मर तो यह सकते ही नहीं हैं।"
इतना कहने के उपरान्त भगवान कुछ क्षण के लिए मौन हुए किन्तु तुरन्त ही फिर बोले, "विभीषण मेरे सेवक हैं। मैंने इनको लंका का राज्य भी दिया है, इस प्रकार इनका अपराध मेरा अपराध है। आप लोग इस अपराध के लिए जो भी दण्ड देना चाहें वह मुझे स्वीकार है।"
ब्राह्मणों ने परस्पर विचार-विमर्श किया और सोचा कि राम का जो सेवक अथवा भक्त होगा, वह जान-बूझ कर कोई अपराध नहीं करेगा। विभीषण से वह अपराध किसी प्रकार हो गया है।
किन्तु हत्या तो हो गयी थी और अपराध भी हो गया था। इसलिए अपराधी को दण्ड भी मिलना ही चाहिए और हत्या का प्रायश्चित भी होना चाहिए।
इसलिए आश्रमवासियों को ही रामचन्द्र महाराज ने मध्यस्थ बनाया और उन्होंने जो दण्ड-विधान किया उसका भोग महाराज रामचन्द्र ने स्वयं किया। ब्रह्म हत्या का जो प्रायश्चित होता है वह भी रामचन्द्र जी ने स्वयं किया।
रामचन्द्र जी महाराज और उनका राज्य इसीलिए प्रसिद्ध है कि उनके काल में राजा तक भी अपने सेवक के अपराध को अपना अपराध समझते थे। राजा और सेवक के सम्बन्धों का यह उदाहरण किसी अन्य राज्य में नहीं मिलता।
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