नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
परमार्थ की जीत
एक समय ऐसा था जब कोसल के राजा का नाम चारो दिशाओं में फैल रहा था। उन्हें दीनों का रक्षक और दुखी लोगों का सहारा माना जाता था। काशीनरेशउनकी कीर्ति सुन करजल-भुन गये। उन्होंने सेना तैयार की और कोसल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में कोसलनरेश हार गये और वन में भाग गये। पर कोसल में किसी ने काशीनरेशका स्वागत नहीं किया। कोसलनरेश की पराजय होने पर वहाँ की प्रजा दिन-रात रोने लगी। काशीनरेश ने देखा कि प्रजा कोसल का सहयोग कर कहीं पुनः विद्रोह न कर बैठे। इसलिए शत्रु को समाप्त करने के लिए उन्होंने घोषणा करा दी- 'जो कोसलपति को ढूँढ़ लाएगा उसे सौ स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में दी जाएंगी।' किन्तु जिसने भी यह घोषणा सुनी, उसने आँख-कान बन्द कर दाँतों से जीभ दबा ली।
उधर कोसलनरेश दुखी मन से दीन होकर वन-वन में मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन एक पथिक उन्हेंमिला और पूछने लगा, "वनवासी! इस वन का अन्त कहाँ जाकर होता है और कोसलपुर का मार्ग किधर से है?"
राजा ने पथिकसे पूछा, "तुम वहाँ किसलिए जाना चाह रहे हो?"
"मैं एक व्यापारी हूँ। मेरी नौका डूब गयी है, अब कहाँ द्वार-द्वार भीख माँगता फिरूँ! सुना था कि कोसल का राजा बड़ा उदार है, अतएव उसी के दरवाजे जा रहा हूँ।
थोड़ी देर कुछ सोच-विचार कर राजा ने पथिकसे कहा, "चलो, मैं तुम्हें वहाँ तक पहुँचा देता हूँ, तुम बड़ी दूर से परेशान होकर आये हो।"
कुछ दिनों बाद काशीनरेश की राजसभा में एक जटाधारी व्यक्ति आया। राजा ने उससे पूछा, "कहिए, किसलिए आना हुआ?"
जटाधारी व्यक्तिने कहा "मैं कोसलराज हूँ! तुमने मुझे पकड़ लाने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने की घोषणा कराई है। बस, मेरे इस साथी को वह धन दे दो। इसने मुझे पकड़ कर तुम्हारे पास उपस्थित किया है।"
सारी सभा सन्न रह गयी। प्रहरी की आँखों में भी आँसू आ गये। काशीनरेशसारी बातें जान-सुन कर स्तब्ध रह गये। क्षण-भर शान्त रह कर वह बोल उठे, "महाराज! आज युद्धस्थल में मैं इस दुरन्त आशा को ही जीतूंगा। आपका राज्य भी लौटा देता हूँ, साथ ही अपना हृदय भी प्रदान करता हूँ।"
यह कह कर काशीनरेश ने कोसलपति का हाथ पकड़ कर उनको सिंहासन पर बैठाया और मस्तक पर मुकुट रख दिया।
सारी सभा 'धन्य-धन्य' कह उठी। व्यापारी को भी स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हो गयीं।
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