सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

धैर्य की परख

किसी गाँव में एक सद्गृहस्थ रहते थे। पति, पत्नी और पुत्र। तीन प्राणियों का वह परिवार बड़ा ईश-भक्त था। जीवन चल रहा था। एक बार उनका पुत्र अस्वस्थ हो गया। माता-पिता ने पुत्र की सब प्रकार से चिकित्सा कराई, किन्तु रोग शान्त होने की अपेक्षा बढ़ता ही चला गया।

पति अपने कार्य से घर से बाहर भी रहता था। उस अवस्था में पत्नी अकेली ही पुत्र के साथ रहती थी। ऐसे ही एक दिन पति बाहर गया हुआ था कि पुत्र का रोग उस दिन अचानक ही भयंकर रूप ले बैठा और उसने उसके प्राण ही हर लिए। पत्नी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी।

माँ आखिर थी तो माँ ही, उसे मर्मान्तक वेदना हुई, किन्तु शान्ति से, धैर्य से उसने सब सहा। उसके पति के घर आने का समय हो रहा था। अभी पति के लिए खाना भी बनाना था। पुत्र के प्राणहीन शरीर पर उसने चादर तान दी और स्वयं भोजन बनाने में लग गयी।

नियत समय पर पति घर आया। आते ही उसने रुग्ण पुत्र के लिए पूछा, "आज कैसी है उसकी तबियत?"

पत्नी बोली, "आज वह पूरा विश्राम कर रहा है। आप निश्चिन्त होकर भोजन कर लीजिए।"

यह सुन कर पति को सन्तोष हो गया, पत्नी के मुख पर किसी प्रकार के विषाद के लक्षण उसको दिखाई नहीं दे रहे थे। उसको विश्वास हो गया कि जिस पुत्र की माता स्वयं इस प्रकार से विश्वासपूर्वक कह रही है, उसकी उसको क्या चिन्ता करनी। इस प्रकार वह अपने नित्य कर्म में लग गया। उसने हाथ-पैर धोये और भोजन करने बैठ गया।

पति भोजन करता रहा और पत्नी उसको भोजन परोसती रही तथा पंखा भी झलती जा रही थी। पति का भोजन जब लगभग समाप्त होने को था तब उसकी पत्नी ने बड़ी चतुराई से उससे कहा, "सुनिए! मेरी अमुक पड़ोसिन ने मुझ से बहुत पहले एक बर्तन माँगा था। अब तक उसने लौटाया नहीं। मैं जब-जब भी उससे बर्तन लौटाने के विषय में बात करती हूँ तो वह बर्तन तो नहीं लौटाती, उलटे रोना चिल्लाना शुरू कर देती है और उलाहना देती रहती है।"

यह सुन कर पति को हँसी आ गयी। उसके मुख से सहसा निकल गया, "पागल है वह स्त्री। दूसरे से ली हुई उसकी वस्तु को वापस लौटाने में रोने-चिल्लाने का क्या काम? बड़ी नासमझ लगती है।"

तब तक भोजन भी समाप्त हो गया था। पत्नी ने अपने पति के हाथ धुलाते हुए कहा, "अपना बेटा भी तो हमारे पास भगवान की धरोहर था न?"पति ने उसके मुख की ओर देखा, जैसे आश्चर्य व्यक्त कर रहा हो। पत्नी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, "प्रभु ने आज उसे वापस ले लिया है। अब इस में हम रो-चिल्लाकर क्यों मूर्ख बनें?"

पति ने पुनःपत्नी की ओर देखा। यह देख कर उसे आश्चर्य हो रहा था कि बात करते हुए उसकी पत्नी की आँखों में कहीं एक बूंद भी आँसुओं की दिखाई नहीं दे रही थी। लगता था जैसे किसी प्रकार का शोक-सन्ताप उसको है ही नहीं।

पति ने उसी धैर्यपूर्वक कहा, "देवि! तुम ठीक ही कह रही हो!"।

उसने अपनी पत्नी से भोजन करने का आग्रह किया और उसको रसोई में भेज कर स्वयं पुत्र की अन्तिम क्रिया की तैयारी करने में जुट गया।  

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