सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :978-1-61301-681-7

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

बिना बिचारे प्रतिज्ञा

प्राचीन काल में एक राजा थे, जिनका नाम ऋतध्वज था। उनके पुत्र का नाम था रुक्मांगद। वे बड़े प्रतापी और धर्मात्मा राजा थे। उनकी पत्नी विन्ध्यावती बड़ी पतिव्रता थीं। उनका एक पुत्र था धर्मांगद, जो मातृ पितृ-भक्ति में सर्वप्रथम एवं अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति का था। महाराज रुक्मांगद नियम से प्रत्येक एकादशी को व्रत करते थे। उन्होंने अपने राज्य में सब के लिए एकादशी का व्रत करने की घोषणा करवा दी थी। इसीलिए उनके राज्य में आठ से लेकर अस्सी वर्ष की आयु के सभी स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रतानुष्ठान किया करते थे। केवल कुछ रोगी अथवा गर्भवती महिलाएँ इसका अपवाद थीं। इस व्रत के प्रताप से उनके समय में कोई भी यमपुरी नहीं जाता था। यमपुरी सूनी हो गयी। यमराज इससे बड़े चिन्तित हुए। वे प्रजापति ब्रह्मा के पास गये और उन्हें यमपुरी के उजाड़ होने का तथा अपनी बेकारी का समाचार सुनाया। ब्रह्मा जी ने उन्हें शान्त रहने का उपदेश दिया। यमराज के बहुत प्रयत्न करने पर माया की मोहिनी नाम की एक महिला शिकार के लिए वन में विचरते राजा के पास गयी। उसने राजा रुक्मांगद को अपने वश में कर लिया। राजा ने उससे विवाह करना चाहा तो उसने कहा, "मेरी एक शर्त है।"

"क्या?" राजा ने पूछा

"मैं जो कुछ भी कहूँ, वही आपको करना पड़ेगा।"

महाराज कामान्ध हो गये थे, अतःउसकी शर्त स्वीकार कर ली। उसको लेकर वे राजधानी लौटे। राजकुमार धर्मांगद ने बड़े उत्साह के साथ दोनों का स्वागत किया। विन्ध्यावती ने भी अपनी सौत की सेवा करनी आरम्भ की और बिना किसी मानसिक क्लेश के स्वयं को सेविका जैसी मान कर वह मोहिनी की सेवा में लग गयी।

इसी क्रम में एकादशी भी आ गयी। शहर में ढिंढोरा पीटा जाने लगा, 'कल एकादशी है, सावधान! कोई भूल से अन्न न ग्रहण कर ले।'

मोहिनी के कानों में शब्द पहुँचे। उसने महाराज से पूछा, "महाराज! यह क्या घोषणा है?"

रुक्मांगद ने उसे सारी स्थिति से अवगत कराया और स्वयं भी व्रत करने के लिए तैयार हो गये।

मोहिनी ने कहा, "महाराज! मेरी एक बात माननी होगी।"

"इसकी तो मैंने प्रतिज्ञा ही की हुई है, माननी होगी। किन्तु देवी! मुझ से एकादशी व्रत छोड़ने के लिए मत कहना। वह मेरे लिए नितान्त असम्भव है।"

"यह तो हो ही नहीं सकता, आपको अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहना होगा। आप अपनी की हुई प्रतिज्ञा को किस प्रकार टाल सकते हैं?"

"तुम किसी भी शर्त पर मुझे यह व्रत करने की आज्ञा दो।"

"अगर ऐसी ही बात है तो आप अपने हाथों धर्मांगद का सिर काट कर मुझे दे दीजिए।"

इस पर रुक्मांगद बड़े दुःखी हुए। धर्मांगद को जब पिता के दुखी होने का कारण ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पिता को समझाया और वह इसके लिए तैयार हो गये। धर्मांगद ने अपने पिता को समझाते हुए कहा, "मेरे लिए तो इससे बढ़ कर और कोई सौभाग्य की बात हो ही नहीं सकती।"

धर्मांगद की माता विन्ध्यावती ने भी इसका अनुमोदन कर दिया।

सभी तैयार हो गये। महाराज ने ज्योंही तलवार उठाई पृथ्वी काँप उठी। साक्षात् भगवान् वहाँ प्रकट हो गये और राजा का हाथ पकड़ लिया। वे धर्मांगद, विन्ध्यावती को तथा महाराज को अपने साथ अपने श्रीधाम को ले गये।

काम के वश होकर बिना बिचारे प्रतिज्ञा करने का क्या फल होता है, और पिता तथा पति के लिए सुपुत्र एवं सती स्त्री क्या कर सकती है तथा भगवान की कृपा इन पर कैसे बरसती है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है।  

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